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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी : पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 130 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 v- 2010:002 और पात्र तुम्हारे पुत्र हैं जैसे तुम उसे सम्हालते हो वैसे ही तुम इन्हें सम्हालों अपने-अपने परिवार को कैसे सामंजस्य बैठा कर चलाते हो, ऐसे आप पात्रों के साथ सामंजस्य बिठाकर चलों अहो मुमुक्षु आत्माओ ! जिस माँ ने आपको जन्म दिया है, क्या-क्या सोचकर दिया था? कभी-कभी उस बुढिया माँ का भी ध्यान रख लिया करों मनीषियो यह प्रेम, स्नेह अथवा राग की बात नहीं की जा रही, यहाँ वात्सल्य की बात की जा रही हैं वात्सल्य प्रेम नहीं है, स्नेह नहीं है, राग नहीं हैं प्रेम परस्पर में होता है, प्रेम बराबर वालों में होता है, स्नेह छोटों से होता है, राग विशेषों से होता है, वात्सल्य धर्म-धर्मात्मा से होता हैं यह धर्म का संबंध विशेषों का संबंध नहीं है, यह रागी-भोगियों का नहीं, वीतरागियों का हैं अतः यह वात्सल्य अंग है, क्योंकि अपेक्षा से युक्त प्रेम वात्सल्य संज्ञा को प्राप्त नहीं होतां निरपेक्ष अनुराग ही वात्सल्य होता हैं जैसा गाय को अपने बछड़े के प्रति वात्सल्य होता है, वैसा ही धर्मात्मा को धर्मात्मा से प्रेम होता हैं कोई कहे कि मैं धर्म की प्रभावना करने आया हूँ, उससे कह देना कि पहले वात्सल्य से भर कर आओ, फिर प्रभावना करने आनां 7 अहो ज्ञानी! पति ने छन्द-व्याकरण, वेद-पुराण आदि पढ़े, पत्नी ने पूँछ लिया स्वामी! बताओ पाप का बाप क्या है ? ओह! मैंने तो यह सीखा ही नहीं हैं अरे स्वामी ! तो जाओ, पहले सीख कर आओ सीखने गये और रास्ते में गणिका के महल में रुक गयें अरे! ये तो गणिका का महल हैं इसमें ठहरूँगा तो पवित्रता भंग हो जायेगीं पर जैसे ही गणिका ने रुपयों की थैली दिखा दी, तो बोले-ठीक तो है, अपन हवन करके शुद्ध हो जायेंगें बड़ा आश्चर्य है कि थैली दिखा दी तो सप्त-व्यसनी भी शुद्ध हो जाता हैं गणिका बोली- अरे ! आप कहाँ परेशान होते हो? मैं ही आपका भोजन बना दूँगी, आप तो एक थैली और ले लों बोले-ठीक तो है, पुद्गल का परिणमन है, बना देने दों होते-होते बात यहाँ तक पहुँच गई कि वह गणिका पुनः बोली- मैं गणिका हूँ और आप विद्वान हैं, मेरे जीवन में कब-कब ऐसा अवसर आना हैं स्वामी! मेरे हाथ से ग्रास ले लों बोले- यह नहीं हो सकतां गणिका से एक और थैली को पुनः पाते ही उसने अपना मुख खोल दिया, तो गणिका ने गाल पर एक चाँटा जड़ दियां बोली- आप कहाँ बनारस जा रहे थे 'पाप का बाप' पढ़ने, मैने यहीं पढ़ा दियां 'लोभ' में आकर आपने गणिका के हाथ से मुख में ग्रास ले लियां अहो! जब तक 'लोभ पाप का बाप' नहीं पढ़ा, तब तक आप पूरे आगम, पुराण, शास्त्र पढ़ लेना, प्रलोभन में आकर कुछ भी कर सकते हैं भो ज्ञानी ! इसीलिए आचार्य उमास्वामी ने ग्रंथराज 'तत्वार्थ सूत्र' में लिखा है कि क्रोध का त्याग करो, लोभ का त्याग करों यदि कोई उपसर्ग भी आ जाये तो आप मृत्यु को महोत्सव के रूप में देखना, तू घबराना नहीं, मरण कर लेना, लेकिन असत्य के साथ मरण नहीं करना प्राण चले जायें लेकिन अपने प्रण को नहीं छोड़नां भो मनीषियो! पहले 'पाप का बाप' पढ़ना चाहिए था इसीप्रकार पहले तुम वात्सल्य पढ़ लोगे तो प्रभावना भी कर लोगें जहाँ वात्सल्य होगा, वहाँ भगवान भी आ जाते हैं और भक्त भी आ जाते हैं वात्सल्य में Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact: akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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