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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 131 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002
जो शक्ति है, वह संसार में कहीं नहीं हैं अहो! वात्सल्य की महिमा देखो-जड़ पत्थर-ईंट एक ही लाइन में लगे हैं, भवन खड़ा हुआ हैं इसलिए जीवन में वात्सल्यपूर्ण संगठन ही सर्व-शक्तिमान है, उसे खो मत देना चींटियों को देखा, जब वे चलती हैं तो पंक्तिबद्ध चलती हैं, कतार से चलती हैं ऐसे ही तुम सब मिलकर चलोगे, तो लोग कहेंगे कि यह धर्मात्मा का समूह जा रहा है, इनको निकल जाने दों यही वात्सल्य है और वही प्रभावना का प्रभाव हैं प्रभावना का अर्थ होता है-उद्योतन, प्रकाशन, प्रकाशित कर देनां जब चींटी अकेली थी तो समझ में नहीं आ रही थी, और जब वे पंक्ति में आ गई तो उद्योतन हुआं ऐसे ही संगठन ही सबसे बड़ा उद्योतन है, यही प्रभावना हैं
भो ज्ञानी! एक नगर के पास से हम गुजर रहे थे, किसान खेतों में काम कर रहे थे उनका छोटा सा बालक हमें देखकर बोला-देखो, जैनों के भगवान आ रहे हैं अरे! उस बालक को मुनि में भगवान दिख गये, परंतु जिनवाणी कह रही है कि हमें तो बालक में भी भगवान दिख रहे हैं, क्योंकि भगवान की पहचान भी वही कर सकता है जो भगवान बनने वाला हों अघवान कभी भगवान को नहीं देख सकतां आचार्य अमृतचंद्र स्वामी कह रहे हैं कि जो रत्नत्रय से शुष्क हैं, वे क्या प्रभावना करेंगे? गुड़ खाने वाला क्या दूसरों को गुड़ का परहेज करा पायेगा? इसलिए आत्मा को रत्नत्रय के तेज से प्रभावित करो, क्योंकि प्रभावना का अर्थ ही प्रकाशन हैं यदि दूसरों को धर्म से प्रभावित करना चाहते हो, दूसरे के हृदय को तुम प्रभावित करना चाहते हो, तो पहले ज्योति जला लेनां बुझे दीपक से कभी पदार्थ नहीं दिखता, प्रचारक व्यक्ति से कभी धर्म की प्रभावना नहीं होती हैं भगवान जिनेंद्र के तीर्थ में आज तक किसी को धर्म प्रचार के लिए कहीं नहीं भेजा गयां संसार के दर्शनों ने प्रचारक भेजे हैं, परंतु प्रचारक को तुम्हारी संस्था से कोई प्रयोजन नहीं, उसे मात्र प्रचार में जो वेतन मिलेगा उस वेतन से प्रयोजन हैं आपने विद्यालय से एक प्रचारक भेज दिया, तुम्हारा विद्यालय टूट रहा है, फूट रहा है, उसे कोई प्रयोजन नहीं है, उसे तो आपने एक हजार रुपए दिये हैं, एक महिने तक प्रचार करना हैं इसलिए जिनशासन में प्रचारक नहीं होता, प्रभावक होता है तथा प्रभावक वही होता है, जो धर्म से प्रभावित हों अतः, प्रभावक धर्मात्मा होता है, किन्तु प्रचारक धर्मात्मा हो सकता है, नहीं भी हो सकतां
भो ज्ञानी! हम प्रचारक तो बन रहे हैं, पर प्रभावक नहीं ध्यान रखो, प्रचारक का नाम तो किसी मंदिर के पटिये पर हो सकता है, पर प्रभावक का नाम तो सिद्धशिला पर ही होता हैं इसलिए प्रचारक नहीं, प्रभावक बननां प्रचारक बाहर का होता है, प्रभावक रत्नत्रय के तेज से मंडित होता हैं अतः, दान देना, तपस्या करना, जिनेंद्र की पूजा करना, विद्या के साधन जुटाना, भगवान जिनेंद्र के शासन की प्रभावना करना-यह आपके सम्यक्त्व का अंतिम आठवाँ अंग हैं
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