SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 113
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 113 of 583 ISBN # 81-7628-131-3 -2010:002 भो ज्ञानी! लोग तत्त्वज्ञानी तो बनते हैं, पर तत्त्व की गहराई में नहीं उतरतें तत्त्व की गहराईयाँ आ जाने पर तेरी दृष्टि में सम्यक्त्व झलकता हैं हमारी श्रमणसंस्कृति में गुणसम्पन्न बालक भी पूजा जाता है और गुणहीन वृद्ध के प्रति माध्यथ्य भाव रहता हैं उसके प्रति द्वेष भी नहीं है, परंतु राग भी नहीं हैं जिसके संयम में शिथिलाचार है, यदि ऐसे जीव को तुम बहुमान देते रहोगे तो उससे शिथिलाचार का ही पोषण होगा, लेकिन यदि उसके प्रति द्वेष करोगे, तो तुम्हें कर्म का बंध होगां इसलिए हमारे आगम में गम्भीर सूत्र प्रदान किये हैं कि प्राणीमात्र के प्रति मैत्रीभाव, दीनों के प्रति करुणा भाव, गुणियों के प्रति प्रमोद-भाव और विपरीतवृत्ति वाले के प्रति माध्यथ्य-भाव रखों यही समता का भाव हैं __ भो ज्ञानी! अमूढदृष्टि भाव को निश्चय व व्यवहार दोनों दृष्टि से समझों हमारे आगम में वंदना के भी अंतर दिये हैं कोई ब्रह्मचारी अपने आप को 'नमोस्तु कहलवाने लग जाये, यह आगम के विरुद्ध हैं ऐलक व क्षुल्लक जी के लिए आगम में 'इच्छामि कहा है, आर्यिका माताजी को 'वंदामि' कहा जाता हैं पंचपरमेष्ठी ही 'नमोस्तु' कहलाने के अधिकारी हैं यदि इसके विपरीत बहुमान रखते हो तो जिनवाणी कहेगी कि यह तुम्हारा बहुमान नहीं, अज्ञान-भाव हैं अहो! अभिवादन, बहुमान विनय करें, आशीर्वाद भी प्राप्त करें, क्योंकि आशीर्वाद की भी श्रेणी हैं यदि कोई चांडाल नमस्कार करने आता है, हिंसक जीव नमस्कार करने आता है तो मुनिराज कहते हैं 'पापक्षयोस्तु'-तेरे पापों का क्षय हों आगम कह रहा है कि सभी को समान आशीर्वाद नहीं दिया जाता, परंतु दृष्टि असमान नहीं है; कल्याण की भावना सबके प्रति हैं यदि कोई सम्यकदृष्टि धर्मात्मा 'नमोस्तु कहता है तो योगी के श्री मुख से निकलता है-'सद्धर्मवृद्धिरस्तु', तेरे धर्म की और वृद्धि हों जब कोई समकक्ष- साधक नमस्कार करे, जो रत्नत्रयधारी है, तो 'समाधिरस्तु, आपकी समाधि हों मिथ्यादृष्टि धर्मात्मा है तो उसे दर्शन-विशुद्धि भाव, तेरे दर्शन की विशुद्धि हो यानि तुझे सम्यक्त्व की प्राप्ति हो, ऐसा आशीर्वाद देंगें यह आगम की मर्यादा हैं भो ज्ञानी! शक्ति की बात को अभिव्यक्ति द्वारा कहना भी मिथ्यात्व हैं अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु मेरी आत्मा में विराजते हैं, इसीलिए मेरी आत्मा ही मेरा शरण हैं निश्चयदृष्टि है और व्यवहारदष्टि से प्रत्येक परमेष्ठी के लक्षण भिन्न हैं: प्रत्येक परमेष्ठी का द्रव्य भिन्न है, प्रत्येक परमेष्ठी के गण भिन्न हैं और मूलगुण भी भिन्न हैं यह परमेष्ठी का व्याख्यान हैं, परमेष्ठी को ही परमेष्ठीरूप समझनां आपके आगम में चार देव हैं- देव, अदेव, कुदेव और देवाधिदेवं यह शीश इनमें देवाधिदेव मात्र को ही झुकता है, शेष तीन को नहीं 'अदेव' उसे कहते हैं जिसमें देवत्व की लोक मान्यता है जैसे-कोई तिर्यंच की आराधना कर रहा है, कोई वृक्ष की आराधना करता है और कोई पत्थर की आराधना कर उसमें धर्म मान रहा है, यह 'अदेव' की आराधना हैं जो वीतराग मार्ग से विपरीत है, मिथ्यात्व में संलग्न है और कुलिंग धारण किये हैं, वे 'कुदेव' की श्रेणी में हैं जो चार- निकाय के देव हैं, वे सामान्यतः 'देव' हैं और जो सौ इन्द्रों से ___Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact : akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy