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________________ पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी : ISBN # 81-7628-131-3 v- 2010:002 पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 114 of 583 पूज्यनीय-वंदनीय हैं, अठारह दोषों से रहित हैं, वह सर्वज्ञ प्रभु देवाधिदेव हैं हम देवाधिदेव की ही वंदना करते हैं, शेष सबका यथायोग्य सम्मान रखते हैं, पर अनादर किसी का नहीं हैं माँ जिनवाणी कह रही है"बेटे! तुम ध्यान रखो, आपका आँगन बहुत है, वहीं तुम खेलो, दूसरे के आँगन में मत जाओं जब मेरी माँ का आँगन संकुचित हो जायेगा तभी सोचूँगा लेकिन दुनियाँ मिथ्यात्व की आराधना कर रही है कि कुछ हो न जायें एक सज्जन आये, बोले- महाराज! आपको जगह-जगह सभी प्रकार के ऐसे स्थानों पर विहार करना होता है, अतः आपको कुछ सिद्धि रखना चाहिएं भो ज्ञानी ! जिसने पंचपरमेष्ठी के पद को ही प्राप्त कर लिया हो, वही डरने लगे तो परमेष्ठी किस बात का ? क्यों? ' णमो लोए सव्वसाहूणं' की आराधना करके मैं देवों को बुलाऊँ ? नहीं, मैं तो देवाधिदेव की आराधना करूँगा, देव तो अपने- आप आयेंगें भो ज्ञानी! जब तक निर्मल सम्यक्त्व तुम्हारे अंदर में नहीं गूँजेगा अर्थात् रत्नत्रय नहीं है, तो अपूज्य हो और रत्नत्रय है, तो पूज्य हों सुख-दुःख रत्नत्रय के हेतु नहीं हैं, यह पुण्य पाप के हेतु हैं पाप का विपाक है तो हजारों सैनिकों के बीच शत्रु बंदी बनाकर ले जायेगां पाप के विपाक का उदय आया तो 'धर्मराज' - जैसे जीव की भी बुद्धि विपरीत हो गई थीं द्यूत क्रीड़ा में सबकुछ हार गये, यहाँ तक कि नारी को भी दाव पर लगा दियां यह कर्म की विचित्रता हैं कहाँ गये थे देवी-देवता जब एक शीलवंती के चीर को खींचा जा रहा था ? देखो, अमूढदृष्टि अंग का पालक कहता है कि मैं आराधना तो पंचपरमेष्ठी की करूँगा, परमेष्ठी के प्रसाद से कोई मेरी सेवा करने आ जाये तो मुझे कोई एतराज भी नहीं सीता ने देवों का आहवान नहीं किया, पंच-परम-गुरु का आह्वान किया था अहो! देखो संसार की दशां जब पुण्य प्रबल होता है तो निमित्त भी ऐसे सामने होते हैं केवली भगवान की आराधना करने जा रहे थे देव आकाशमार्ग सें सौधर्म-देव एक देव को आज्ञा देता है कि आप जाओ, शीलवंती सीता के शील की रक्षा करों यदि आज यह उपसर्ग दूर नहीं किया तो लोगों की शील-धर्म से आस्था उठ जायेगीं देख रहे थे राम लक्ष्मण राम लक्ष्मण को तो ठीक है, उन लव - कुश की लाल आंखों को देख लों कि जिनकी माँ अग्नि कुण्ड में कूद रही हो, उन लालों के हृदय से पूछना-बेटे! तुम कैसे देख रहे थे? पर धन्य हो उस माँ को, जिसने अपने बेटों का राग नहीं किया, परंतु अपने पति को सत्य का परिचय दियां यदि सीता इस उपसर्ग से मुख मोड़ लेती तो लोक का कलंक जानेवाला नहीं थां अहो! एक नारी वह है जो दोनों कुलों को उज्ज्वल करनेवाली होती है और एक नारी वह है जो दोनों कुलों को मलिन करनेवाली होती हैं यदि नारी की भावना निर्मल है, तो दोनों कुलों में शोभा है और नारी की भावना गिर गई, तो दोनों कुल डूब गये! भो ज्ञानी! जब अग्नि का नीर हुआ तो, जनक भी खुश थे, कनक भी खुश थे, राम का पक्ष भी प्रसन्न था, अयोध्या में भी जय-जयकार हो रही थीं परन्तु धन्य हो, हे सीते! आपने सम्यक्त्व को जयवंत किया, इसके साथ-साथ जिन शासन को भी जयवंत किया और नारी जाति को आपने निर्मल कियां नारी जाति का Visit us at http://www.vishuddhasagar.com Copy and All rights reserved by www.vishuddhasagar.com For more info please contact: akshayakumar_jain@yahoo.com or pkjainwater@yahoo.com
SR No.009999
Book TitlePurusharth Siddhi Upay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorVishuddhsagar
PublisherVishuddhsagar
Publication Year
Total Pages584
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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