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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी पुरुषार्थ देशना : परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 112 of 583 ISBN # 81-7628-131-
3 v -2010:002 'उपगूहन अंग धर्मोऽभिवर्द्धनीयः सदात्मनो मार्दवादिभावनया
परदोषनिगूहनमपि विधेयमुपबृंहणगुणार्थमंzi अन्वयार्थ:उपबृंहण गुणार्थम् = उपबृंहण नामक गुण के अर्थ मार्दवादिभावनया = मार्दव, क्षमा, संतोषादि भावनाओं के द्वारां सदा = निरन्तरं आत्मनो धर्मः = अपने आत्मा के धर्म अर्थात् शुद्ध स्वभाव को अभिवद्धनीयः= वृद्धिगत करना चाहिए और पर दोषनिगूहनमपि = दूसरों के दोषों को गुप्त रखना भी विधेयम् = कर्त्तव्य-कर्म हैं
मनीषियो! भगवान महावीर स्वामी की दिव्यदेशना हम सभी सुन रहे हैं आचार्य अमृतचंद्र स्वामी ने बहुत ही सहज सूत्र दिया है कि दृष्टि ही मूढ़ है, दृष्टि ही अमूढ़ हैं द्रव्य न तो मूढ़ है, न अमूढ़ हैं द्रव्य तो द्रव्य है, द्रव्य के प्रति प्रीति भाव का नाम मूढ़ता हैं यथातथ्य, जैसा है वैसा ही भाव होना, अमूढ़ता का भाव हैं पूज्य को पूज्य, आदरणीय को आदरणीय और परमपूज्य को परमपूज्य मानना, यह निर्मल दृष्टि हैं परन्तु सन्माननीय को पूज्यनीय, पूज्यनीय को परम पूज्यनीय मानना जहाँ तुमने प्रारंभ किया, वहीं मूढ़ता का उद्भव हो जाता हैं मनीषियो! पंचपरमेष्ठी मात्र परम पूज्य हैं, शेष आपके सन्माननीय हो सकते हैं, आदरणीय हो सकते हैं, पूज्यनीय हो सकते हैं, लेकिन देवाधिदेव की श्रेणी में यदि आपने अन्य देवों को रख लिया, यही मूढ़ता हैं
भो ज्ञानी! भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक- इन चतुर्निकाय निकाय के देवों को नहीं मानना भी मूढ़ता है और इन देवों को देवाधिदेव मानना भी मूढ़ता हैं देव,देव हैं; देवाधिदेव- देवाधिदेव हैं; विद्यागुरु, विद्यागुरु हैं, शिक्षागुरु, शिक्षागुरु हैं जिन्होंने मिथ्यात्व व असंयम का परित्याग किया है, वे धर्म के गुरु हैं जिनके अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान की सर्वघाती प्रकृतियों का उदयाभावी क्षय है व देशघाती संज्वलन-प्रकृति का उदय है, ऐसे समस्त मनिराज हमारे लिए परमपूज्य हैं ध्यान रखना, को उपकारी विशेष भी हो सकता है, और उसके प्रति विशेष बहुमान होता हैं अतः, दीक्षा-गुरु के प्रति उपकार-भाव तो आयेगा, लेकिन तीन कम नौ कोटि मुनिराजों के प्रति अनादर भाव भी नहीं आना चाहिये यदि आता है तो वह तेरी अज्ञानता हैं
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