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= आस्था की ओर बढ़ते कदम प्रकरण ३
तीर्थंकर परमात्मा का स्वरूप
यह बातें सन् १९६८ के वर्ष की हैं यह मेरे जीवन के नवनिर्माण का वर्ष था। मेरा शुभ कर्म का उदय हो चुका था। मुझे सम्यकत्व की प्राप्ति वीतराग परमात्मा का स्वरूप समझाया गया। जैन धर्म में परमात्मा एक अवस्था का नाम है जैन धर्म जव आत्मा जन्म मरण से मुक्त होने की अवस्था में आती है तो सर्वप्रथम कर्म बंध के बंधन को तोड़ कर केवल्य ज्ञान, केवल्य दर्शन को प्राप्त करती है। ऐसी आत्मा तीन लोक में तिथंच व देव पुजित होती है। जीव व आजीव तत्व की व्याख्या करती है। इस अवस्था को साकार परमात्मा या अरिहंत कहते हैं। अर्हत में जो तीर्थकर गोत्र का उपार्जन करते हैं वह जन्म से तीन ज्ञान के धारक होते हैं। दीक्षा लेते उन्हें चौथा जान मन पर्यव ज्ञान प्राप्त होता है। फिर पांचवा केवल्य ज्ञान प्राप्त कर वह तीर्थ की स्थापना करते हैं। ऐसी आत्माएं देवों द्वारा पूजित, अष्ट प्रतिहार्य व ३४ अतिशय युक्त मानी जाती हैं। स्वर्ग के ६४ इन्द्र उनके गर्भ, जन्म, दीक्षा, केवल्य ज्ञान व मोक्ष के समय धरती पर अपने देव परिवार सहित उतरते हैं। इन की धर्म सभा को समोसरण कहते हैं। इन के शरीर विशेष लक्ष्णों से युक्त होते हैं। यह क्षत्रिय कुल में जन्म लेकर धर्म रूपी चार तीर्थ की. स्थापना करते हैं। यह तीर्थ हैं साधु, साध्वी, श्राविक व श्राविका। इसी तरह के २४ तीर्थकर इस भरत खण्ड में अनंत वार जन्म लेते हैं। तीर्थकर परम्परा महाविदेह क्षेत्र में शास्वत रहती है। वहां २० विहरमान तीर्थकर भ्रमण करते रहते हैं। जैन धर्म में यह देव का रूप हैं इसी का भाग हैं निराकार परमात्मा जिन्हें जैन परिभाषा में सिद्ध परमात्मा
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