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- आस्था की ओर बढ़ते कदम • कहते हैं। हर अरिहंत अपनी जीवन यात्रा पूर्ण कर सिद्ध
बनला है। जैन न तो एकेश्वर वाद को मानते हैं न ईश्वर को सुष्टि का कर्ता मानता है। कर्म के फल का कर्ता व भोक्ता आत्मा को मानता है। जैन दृष्टि में आत्मा गुणों की दृष्टि से एक है। संख्या की दृष्टि में जितने जीव हैं उतनी आत्माएं हैं। यही आत्मा कर्मबंधन से मुक्त हो सिद्धावस्था को प्राप्त करती है। जैन धर्म ईश्वर के अवतारवाद की धारणा नहीं है। जैन कर्म प्रधान, श्रमण धर्म है। गुरू का लक्षण :
जैन धर्म में दूसरा लक्षण गुरू है। गुरू ३६ गुणों का स्वामी होता है वह ५ महाव्रत, ५ समिति, ३ गुप्ति, चार काषायों के मुक्त, पांच इन्द्रियों के विषयों पर काबू करने वाला होता है। इस गुरू का दूसरा नाम श्रमण, निग्रंर्थ है। वह अपनी साधना से लोक व परलोक के विषयों को जीत कर जन समान्य में धर्म का प्रचार करता है। यह वीतरागी गुरू छह प्रकार के जीवों की हिंसा से बनते हैं। धर्म का स्वरूप :
जैन धर्म का तीसरा तत्व धर्म हैं। यह धर्म मिथ्यात्व रहित सम्यक्त्व है। इस में शोक का कोई स्थान नहीं है। सर्वज्ञ परमात्मा द्वारा कथित धर्म ही सच्चा धर्म है। धर्म की शरण ग्रहण करने वालो को जरूरी है कि वह सर्वज्ञों द्वारा कथित जिन आज्ञा का अक्षरता से पालन करे। तीर्थकरों द्वारा कथित जीव अजीव सिद्धांतों शास्त्रों के अनुसार जाने। फिर माने। फिर उन सिद्धांतों के अनुसार चले। इस देव गुरू धर्म का स्वरूप ही सम्यक् दर्शन जिसे दूसरी भाषा में सम्यक्त्व भी कहते हैं।