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आस्था की ओर बढ़ते कदम
मन्दिर हैं । इनमें प्रसिद्ध विरला मन्दिर है जो सारा संगमरमर का बना हुआ है । जयपुर नरेश श्री महावीर जी तीर्थ का परम भक्त था । उसने इस तीर्थ की महिमा सुनकर इस तीर्थ के नाम एक गांव कर दिया था । जयपुर कला का केन्द्र है. यहां सोने की स्याही व कांच से चित्र बनाने वाले कारीगर हैं । इस प्रकार जयपुर और इसके आसपास का इलाका जैन व हिन्दू संस्कृति के स्थलों से भरा पड़ा है । यहां राजस्थान के लोग सज्जन, दानी, सात्विक वृति के हैं । इस शहर को बहुत से साहित्यकार, आचार्य, उपाध्याय, मुनि, महारथी की जन्मभूमि रही है, जिन्होंने जैनधर्म, कला, साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान दिया है ।
इस भूमि पर जाने के लिये मेरे धर्मआता श्री रवीन्द्र जैन मंडी गोविन्दगढ़ पहुंचे । काफी कामों में से इस यात्रा के लिये समय निकालना काफी कठिन था । पर पूज्य पिताजी ने मुझे यात्रा के लिये सहर्ष विदा किया । उस समय दिन के ११.३० बज चुके थे । हम वस द्वारा देहली पहुंचे, उस समय शान के ४ वजे थे । हम जयपुर वाले स्टैंड पर पहुंचे । हमें राजस्थान ट्रांस्पोर्ट की वस मिल गई । वह वस अहमदाबाद जानी थी । पहले वस राजस्थान हाऊस गई । वहां से जयपुर के लिये वस वालों ने अखवार, पत्रिकायें उठाई, फिर वस दिल्ली-जयपुर के मार्ग पर चल पड़ी । दिल्ली के निकलते ही रात्रि हो चुकी थी । सड़क बहुत खुली है । एक साथ काफी ट्रैफिक स्पीड से गुजर सकता है । दस जयपुर-अहमदावाद रूट नंः ご
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से गुजर रही श्री । दूर तक वस्ती का नाम नहीं था । आधी रात हो चुकी थी, एक टूरिस्ट स्थल आया, वहां सभी सरकारी बसें रुकती हैं । यह बंगला ए. सी. वंगला था, जहां यात्रियों के खाने-पीने ठहरने का अच्छा प्रबन्ध था । इस स्थल पर
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