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- વાસ્થા વોર વહd o૮ इस प्रकार वाराणसी में चार तीर्थकरों के च्यवन, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान कल्याणक हुए थे ।
वाराणसी में इन तीर्थ के अतिरिक्त १२ श्वेताम्बर नन्दिर व ११ दिगम्बर नन्दिर तीर्थ की शोभा में चार चांद लगाते हैं । यहां राजघाट व अन्य स्थानों पर खुदाई के समय जो पुरातत्व सामग्री प्राप्त होती है, वह स्थानीय कला भवन में सुरक्षित है । इनमें अनेकों पाषाण व धातु की अनेकों कलात्मक जैन प्रतिमाएं प्राप्त होती हैं ।
वाराणसी तीर्थ का इतिहास प्रथम तीथंकर भगवान ऋपभदेव से प्रारम्भ होता है। यह वही पवित्र धरती है जहां भगत कवीर, संत तुलसीदास, संत रविदास, सैन भक्त जैसे नहापुरुप पैदा हुए । मीराबाई यहां आई थी । भक्ति मार्ग के भनेकों भक्तों का सम्बन्ध इस धरती से है ! हमारा . वाराणसी आगमन :
हम वराणसी पडचे तो रात्रि होने वाली थी, सबसे बहले यहां के प्रसिद्ध घाट में राजा हरी चन्द्र का घाट देखा । जहां मरने के लिये हर हिन्दू की कामना रहती है कि उसका अंतिम संस्कार इस घाट पर अग्नि संस्कार इस घाट पर हो । वहां मुर्दे के. जलाने का ठेका टेकेदार वाराणसी नगर पालिका को देत. है जो करोड़ों रुपये तक पहुंचता है । यहां राजा हरीशचन्द्र ने सत्य की परीक्षा दी थी । हरीशचन्द्र ने यहां चडाल के नौकरी की थी, उसकी रानी तारा ने भी नौकरी की थी । हरीशचन्द्र के पुत्र रोहित को सांप ने डसा, हरीशचन्द्र के जिम्मे इस शमशान का जिम्मा था । वह हर मृतक के परिवार से एक शुल्क लेता धा । इसी कारण उसने अपने पुत्र व पत्नी तक को नहीं छोड़ा, पर हरीशचन्द्र ने अपनी नीक्षा दी, वह इस बीक्षा में सफल
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