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आस्था की ओर बढ़ते कदम
की तरह बहा रहे थे, परन्तु मुझे कहीं से भी आराम नहीं निल रहा था । मेरी पत्नी हर समय मेरा ध्यान रखती थी । सारी रात जागकर मेरी सेवा करती, पर माता, पिता, पत्नी धन-सम्पदा में से कोई भी मेरा दुःख काम न कर सका, इन सबमें मेरा कोई भी नाथ न बन सका, मैं अनाथ रहा ।"
एक रात्री मैंने सोचा, सव उपचार कर लिए, अव धर्म रूपी औषधि से उपचार करना चाहिए । मैंने सोचा अगर मैं सुदह रोग मुक्त हो गया, तो रोग मुक्त होते ही दीक्षा ग्रहण कर लूंगा ।"
मैं सुबह उठा, मेरा रोग जा चुका था । मैंने अपनी प्रतिज्ञा अनुसार प्रभु महावीर से दीक्षा ग्रहण की । मैंने उन सव कारणों से त्यागा, जो मुझे अनाथ वनाते थे । मुनि वनते ही मैं अपनी आत्मा का नाथ रूप वन गया हूं । यह मेरी नाथ की परिभाषा है । संसार से के भोग-विलास किसी का सहारा नहीं बनते । मुझे नाथ - अनाथ की परिभाषा समझ में आ गई है
राजा श्रेणिक ने मुनि की त्याग भरी बात सुनी, वह भी सपरिवार प्रभु महावीर का सेवक बन गया । इस घटना ने राजा श्रेणिक को जैन धर्म का भावी तीर्थंकर बना डाला । यह राजा श्रेणिक था जो सारा जीवन प्रभु महावीर की भक्ति करता रहा, उसका पुत्र कोणिक भी प्रभु महावीर का भक्त
था ।
इसी नगरी में पुणिया जैसा श्रावक पैदा हुआ, जिसके दरवाजे पर राजा श्रेणिक एक समायिक का फल मांगने गया था । मात्र भगवती सूत्र में हजारों बार इस नगर का नाम आया है ।
बीसवें तीर्थंकर भगवान मुनिसुव्रत के चार कल्याणक यहां हुए, उनमें जीवन से संबधित अनेकों प्राचीन स्थान हैं ।
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