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-आस्था की ओर बढ़ते कदम है, क्योंकि हम धर्म तो कई बार करते हैं, धर्म की बातें सुनते हैं, अनेक बातों को सत्य भी मानते हैं, पर हमारी इन पर श्रृद्धा नहीं बनती। हमेशा संशय बना रहता है और श्री कृष्ण के शब्दों में “संशयवान आत्मा विनाश को प्राप्त करती है। यह विनाश ही मिथ्यात्व है अगर श्रृद्धा नहीं वनती तो चित भटकता रहता है। आज अधिकांश स्त्री पुरुषों की हालत ऐसी है। हर एक ब्रह्मज्ञानी कहलाना चाहता है। हर कोई कहता है कि उस के पास अंतिम परम सत्य है। पर मैं प्रभु महावीर की भाषा में कहूं तो इतना ही पर्याप्त है कि कुछ भी अंतिम सत्य नहीं है। यहां तक जन्म भी अंतिम सत्य नहीं, मरण भी अंतिम सत्य नहीं। क्योंकि इस जन्म से पहले हमारे कितने जन्म कहां कहां हुए, कोई नहीं जानता। यह मरण भी जीवन का अंत नहीं। इस से पहले भी हम हर जन्म में मरे हैं, मर कर पुनः जन्में हैं। यहां तक ऐकेन्द्रीय द निगोध अवस्था में तो जन्मों की गणना ही नहीं की जा सकती। नरक स्वर्ग में दीर्घ समय तक रहे, यह भी कथन से बाहर है। कितने बार निगोद अवस्था के जीव वने। तीथंकरों से ईलावा कोई नहीं जानता।
इन बातों को ध्यान में रख कर हमें केवली कथित ६ गर्म के अनुसार चलना चाहिए। उस पर यथा रूप श्रद्धा करनी चाहिए। मिथ्यावादियों के चमत्कार देख कर संतुलन खोना नहीं चाहिए। हमें सम्यक्त्व पर पूर्ण रूप से श्रद्धा रखते हुए देव, गुरू व धर्म को उनके गुणों अनुसार श्रद्धा करनी चाहिए। इस श्रद्धा से मिथ्यात्व का उबड़-खाबड़ रास्ता साफ हो जाएगा। सम्यक्त्व का साफ रास्ता प्रशस्त होगा।
जैन धर्म में सम्यक्त्व पर श्रद्धा ही जैन धर्म की प्रथम पहचान है। अंधेरे से प्रकाश की ओर यात्रा का प्रथम कदम सम्यक्त्व है। हमारे सम्यकत्व की और श्रृद्धा बढ़ाने में हमारे