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आस्था की ओर बढ़ते कदम
कालिक सूत्र में प्रथम अध्ययन में किया ।
धर्म उतकृष्ट मंगल है, धर्म वही है, जिस लक्षण का अहिंसा, संयम व तप है। ऐसे धर्म का जो पालन करते हैं, उन्हें देवता भी नमस्कार करते हैं। मुझे निरोग शरीर व इन्द्रीयां मिली हैं। सुनने, समझने व देखने की शक्ति मिली है । इस जीवन के प्रमुख चार दुर्लभ अंग प्राप्त हुए है। वैसे यह कहा जाता है कि स्वास्थ्य शरीर में ही शुद्ध धर्म ठहरता है |
'मुझे वीतराग अरिहंतों, तीर्थकरों द्वारा कथित धर्म सुनने को मिला है ऐसा धर्म सुनना पिछले जन्मों के शुभ कर्म का सुफल है।' नहीं तो व्यक्ति का मन धर्म के प्रति आकर्षित नहीं होता। आज जब मैं यह शब्द लिख रहा हूं तो जीवन की आधी सदी से ज्यादा का सफर तय कर चुका हूं। मैं विभिन्न आचार्यों, उपाध्यायों, साधुओं, साध्वीओं व अन्य शास्त्रीय पदवी धारी जैन संतों को मिला है। सभी का आर्शीवाद व सहयोग मुझे प्राप्त हुआ है। सभी के प्रवचन मैने सुने है और इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि प्रभु वीतराग की वात का कथन जो भी करेगा स्वयं वीतराग हो जाएगा। प्रभु की वाणी अमृतमय है । इस में देश, काल, आयु, लिंग, जात-पात, छुआछूत का भेद नहीं हैं । प्रभु जहां प्रवचन करते हैं वहां पशु, मानव, स्त्री, देव व देवीयां परस्पर प्रेम से वैठकर सुनते हैं और अपना परम्परागत वैर भूल जाते हैं । इसी लिए उस स्थान को जैन परिभाषा में 'समोसरण' कहते हैं। समोसरण की महिमा अनुपम व अकथनीय है। प्रभु के अष्टप्रतिहार्य, अतिशय यहां घटित होता है। प्रभु अर्ध मागध प्राकृत में उपदेश करते हैं।
प्रभु महावीर की तीसरी दुर्लभ वात भी मुझे बहुत आर्किषत करती है। यह बात बहुत ही दुर्लभ कही जा सकती
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