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- आस्था की ओर बढ़ते कदम भेद हैं : साधु और उपासक। साधु इन पांचों को महाव्रतों के रूप में ग्रहण करता है जवकि उपासक के व्रतों को अणुव्रत कहा जाता है।
मेरा सौभाग्य . प्रभु महावीर की कृपा से मेरा जन्म जिस परिवार में हुआ वहां धर्म के चारों दुलर्भ अंग प्राप्त थे। सर्वप्रथम मुझे धर्म का दुलर्भ अंग मनुष्य जन्न मिला। संसार में जिस जन्म को देव तक तरसते हैं। संसार में वैसे तो ८४ लाख योनियां मानी जाती हैं पर सर्व श्रेष्ट योनि मनुष्य की मानी जाती है। जैन धर्म में चार योनियां प्रमुख मानी जाती हैं : १. मनुष्य २. पशु ३. नरक ४. देव
इसी योनि में मनुष्य चाहे तो आत्मा से परमात्मा तक की यात्रा शुरू कर सकता है अगर अशुभ कर्मोदय हो तो नरक का द्वार खोल सकता है। अगर शुभ कर्म करे तो देव बन सकता है अशुभ कर्म करे तो दानव। इसी योनि में मनुष्य धर्म के चार अंग दान, शील, तप व भावना का पालन कर सकता है, अगर नीचे गिरे तो वासना, इच्छाओं व तृष्णाओं का कीड़ा बनकर भटक सकता है। यह मनुष्य श्रेष्ठ योनि है जिसे देव, देवीयां नमस्कार करते हैं इस भव में ही मनुष्य महाव्रत, समिति, गुप्ति, का पालन कर मुनि वन सकता है। चाहे संसार में रहकर धर्म पालन कर सकता है। हमारे सामने श्रावक आनंद जैसे दसों श्रावकों का वर्णन है जिन्हें संसार की हर वस्तु सुख उपलब्ध थी जिन्होने प्रभु महावीर से श्रज्ञवक के अणुव्रत धारण किए और देव लोक को प्राप्त किया। प्रभु नहावीर ने स्पष्ट उदघोष श्री दाबें
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