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होती है। गुरु, तत्त्व का स्वरूप ऐसा समझाते हैं जो शीघ्र समझ में आ जाता है। गुरु तारणतरण होते हैं। आप स्वयं भवसागर से तरते हैं और शिष्यों को भी पार लगाते हैं। यदि गुरु साक्षात् न हों तो नित्यप्रति उनके गुणों का स्मरण करके उनकी भक्ति अवश्य करनी चाहिये।
आचार्य पद्मनन्दि महाराज ने लिखा है- जो गुरुओं की उपासना करते हैं, वे पुण्यवान महात्मा पुरुष हैं
मानुष्यं प्राप्य पुण्यात् प्रशममुपगतं रोगवद् भोगजालं। मत्वा गत्वा वनान्तं दृशि विदिचरणे ये स्थितिः संगमुक्ताः ।।
कः स्तोता वाक्पथातिक्रमण पटुगणैराश्रितानां मुनीनां । स्तोतच्यास्ते महद्भिर्भुवि य इह तदड्द्यि द्वये भक्तिभाजः ।।71 ||
पुण्ययोग से मनुष्यभव को पाकर शमत्व को प्राप्त होकर और भोगों को रोग तुल्य जानकर तथा वन में जाकर समस्त परिग्रह से रहित होकर, जो यतीश्वर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र में स्थिर होते हैं, जो कि वचनागोचर गुणों कर सहित हैं, उन मुनिराजों की जो स्तुति करते हैं, वे धार्मिक पुण्यवान् महात्मा पुरुष हैं।
ये गुरुं नैवमन्यन्ते तदुपास्तिं न कुर्वते। अन्धकारो भवेत्तेषामुदितेऽपि दिवाकरे ।।19 ।।
(पद्मनन्दि पंचविंशतिका) जो गुरुओं को नहीं मानते तथा उनकी सेवा-वन्दना नहीं करते, उनको सूर्य के होने पर भी अन्धकार ही है। तात्पर्य यह है कि जो मनुष्य व्यापारादि गृहकार्य में अनुरक्त तथा पंचेन्द्रिय के विषयों में लीन रहते हैं, गुरुओं की भक्ति, स्तुति आदि नहीं करते, वे लोग सम्यग्ज्ञान प्रकाश को प्राप्त नहीं कर सकते।
गुरुओं की संगति से जैसे-जैसे ज्ञान वृद्धिंगत होता है, वैसे ही हमारा चारित्र भी वृद्धिंगत होता है। चारित्ररूप सम्पदाएँ उनको ही प्राप्त होती हैं, जो कि गुरुजनों के आश्रम में रहकर उनकी सेवा किया करते हैं। गुरुओं की संगति से आत्मस्वरूप में अवस्थान होता है और उससे पूर्वोपार्जित कर्मों का विनाश होता है। गुरु की महिमा अपार है। गुरुकृपा के बिना कुछ भी संभव नहीं है।
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