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भी नहीं कर सकते।
एक ओर जीव की शक्तियाँ कम होते-होते जहाँ इस चरम सीमा तक कम हो सकती हैं, वहीं दूसरी ओर बढ़ते-बढ़ते वे मानव में-जब वह मानवता के चरम उत्कर्ष परमात्मा-अवस्था को प्राप्त करता है-परिपूर्णता के शिखर पर पहुँच सकती हैं। इस प्रकार प्रत्येक जीवात्मा में परमात्मा होने की उत्कृष्ट संभावना विद्यमान है और सूक्ष्म जीवाणु आदि की तरह लगभग जड़वत रह जाने की निकृष्ट संभावना भी।
जीव की परमात्म-अवस्था की ओर उन्नति अथवा जीवाणु अवस्था की ओर अवनति, दोनों ही इसके स्वयं के पुरुषार्थ पर निर्भर करती है। यह उन्नति का मार्ग चुने या अवनति का, यह निर्णय इसकी अपनी स्वतंत्रता है। मनुष्य अवस्था वह खास पड़ाव है जहाँ से जीव को आत्मोन्नति पर निकल पड़ने की सुविधा है, हालाँकि सामान्यतः सभी संज्ञी (मन-सहित) पंचेन्द्रिय जीव इस यात्रा की शुरूआत कर सकते हैं।
यद्यपि जीव में परमात्मा होने की उत्कृष्ट संभावना निहित है, तथापि वर्तमान में तो हम पाते हैं कि जीव दुःखी हैं। विश्व का प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है। उसका प्रत्येक प्रयत्न सुख प्राप्ति के लिये ही होता है, परन्तु सुख के सच्चे स्वरूप से अनभिज्ञ होने के कारण उसके प्रयत्न भी सम्यक् नहीं होते, फलतः उसे दुःख के सिवाय कुछ भी प्राप्त नहीं होता। क्योंकि इसने मान रखा है कि विषय-सामग्री के अभाव से मैं दुःखी हूँ, अगर वह प्राप्त हो जाये तो सुखी हो जाऊँ। जैसे ड्रग पीने वाले को ड्रग नहीं मिलने पर वह अपने आपको दुःखी मानता है, ड्रग मिलती है तो वह अपने आपको सुखी मान लेता है, परन्तु क्या ड्रग मिलने पर अपने को सुखी मानने वाला सचमुच सुखी है? सुखी तो वह है जिसको ड्रग की जरूरत ही नहीं है। उसी प्रकार इस जीव का ड्रग है, स्त्री-पुत्रादि, धन-दौलत, परिग्रह और परिवार। उनके अभाव में यह अपने आपको दुःखी मानता है और उनके मिलने पर अपने को सुखी मानता है। वास्तव में सुखी वह है, जिसको इनकी जरूरत ही नहीं है। वही जीव अपने आप में सुखी है, जो वासना की पूर्ति की चेष्टा नहीं
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