________________
रत्नत्रय के तेज से अपनी आत्मा को प्रभावनायुक्त करना चाहिए और यथाशक्ति दान देकर, तप धारण करके, जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करके या ज्ञान आदि की महिमा के द्वारा जिनधर्म की, सच्चे मार्ग की प्रभावना करनी चाहिए। देखिए, बाह्य और अंतरंग का कितना बढ़िया समायोजन इसमें किया गया है। स्वयं रत्नत्रय धारण करके अपने अंतरंग को निर्मल बनाना और बाह्य में जो निर्मलता के साधन हैं, उनके माध्यम से जिनधर्म की प्रभावना करनी चाहिए। बाह्य में दिखाई देनेवाले जप-तप, दान-पूजा, व्रत-नियम और ज्ञान-ध्यान आदि सभी अंतरंग को निर्मल बनाने के सशक्त साधन हैं।
दान देने से प्रभावना होती है, लेकिन संक्लेषपूर्वक या अहंकारवश, यश-ख्याति की आकांक्षा से दिए गए दान से प्रभावना मानना ठीक नहीं है। दान तो ऐसा दिया जाए जिससे स्व–पर कल्याण हो। जिसे देने से मन प्रसन्न हो, निर्मल हो। "दान देय मन हरष विसेखै”–दान देकर मन हर्षित हो जाए। दान देने वाले और लेने वाले का मोक्षमार्ग प्रशस्त हो जाए। श्रेयांस राजा ने सबसे पहले दान दिया था। भगवान् ऋषभदेव के हाथों में आहार देकर अपने हाथ पवित्र कर लिए। हाथ ही क्या, पर्याय ही पवित्र हो गयी, मनुष्यजीवन सार्थक हो गया। दानतीर्थ की स्थापना हो गई।
इतिहास में भामाशाह का दान प्रसिद्ध है। भामाशाह जैनधर्म के अनुयायी थे। गाँधीजी ने देश की आजादी के लिए अपनी चादर दे दी थी। वर्णीजी ने विद्यालय की स्थापना के लिए अपनी चादर दे दी थी। ऐसा दान आज के हजारों-लाखों रुपये के दान से श्रेष्ठ माना गया है। एक बुढ़िया ने अपनी एक दिन की पूरी कमाई, जो कुल एक रुपया थी, दान में दे दी थी। वह दान बहुत प्रशंसनीय माना गया था, क्योंकि वह मात्र एक रुपया नहीं था, वह तो बुढ़िया ने अपना सर्वस्व दान में दे दिया
0778_n