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एक बहुत बड़ी और सुन्दर दुकान सोने-चांदी, जवाहरात, हीरे-मोतियों की सराफे बाजार में खोलता है। उसमें सुन्दर फर्नीचर लगवाता है, सजाता है। बेचने के लिये माल भी ले आता है। किन्तु सब माल तिजोरियों में बंद कर देता है। तत्पश्चात् वह नया माल लाता है कोयले का और कोयला बेचना प्रारम्भ कर देता है।
इस प्रकार वह करने योग्य कार्य को न करके उल्टा कार्य करता है, मनुष्य उसे मूर्ख/ पागल नहीं कहेंगे तो और क्या कहेंगे? ठीक इसी प्रकार की स्थिति उस मनुष्य की है जो अपनी इस दुर्लभ मानवपर्याय को अपने इस शरीररूपी सोने-चाँदी की दुकान में षट् आवश्यक रूपी सोने-चाँदी का व्यापार नहीं करता, अपितु विषय-कषाय के कार्यों में मनुष्यपर्याय को खो देता है। मनुष्यपर्याय को पाने के लिए देव, इन्द्र, अहमिंद्र भी तरसते हैं।
तृतीयकाल के अन्त समय में राजा ऋषभदेव राज्य करते थे। एक बार वे अपने महल में नीलांजना का नत्य देख रहे थे। तभी नीलांजना की मृत्यु हो जाती है, किन्तु इन्द्र अपनी शक्ति से शीघ्र दूसरी नीलांजना का रूप बना देता है। सभा में किसी को पता नहीं लग पाता कि नर्तकी नीलांजना की मृत्यु कब हो गयी। परन्तु राजा ऋषभदेव इस परिवर्तन को जान जाते हैं और जीवन की क्षणभंगुरता को देख स्वयं के जीवन से विरक्त हो जाते हैं।
जब भगवान् तप के लिए जंगल जाने लगते हैं तो मनुष्य और देव भगवान् की पालकी को वन में ले जाने हेतु खूब सजाते हैं। इसी बीच एक घटना घटित हो जाती है। इन्द्र और मनुष्यों में विवाद हो जाता है कि भगवान् की पालकी पहले कौन उठायेगा। इन्द्र कहता है कि पहले हम उठायेंगे और मनुष्य कहते हैं कि पहले हम उठायेंगे। जब विवाद बढ़ जाता है, तो निर्णय करवाने के लिये वे राजा नाभिराय जी के पास जाते
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