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अनुकूल साधन मिले हुये हैं। अच्छा कुल, पूर्ण स्वस्थ शरीर, साक्षात् दिगम्बर मुनिराजों के दर्शन एवं धर्मोपदेश, फिर भी यदि जीवन में शान्ति नहीं मिली, सुख का अनुभव नहीं हुआ, फिर इस मनुष्यपर्याय को पाने का क्या लाभ?
सुन्दर शरीर मिलने, भोग-उपभोग पाने, अनुचित कार्य करने, बहुत धनवान् बनने, महान् उद्योगपति बनने, महान् अधिकारी या राजा - सम्राट बनने से मनुष्यजन्म सफल नहीं होता। ऐसी बातों में तो देव मनुष्य से बहुत आगे हैं। अतः मनुष्यभव की सफलता उस धर्म की आराधना करने से है, जो देवपर्याय में नहीं हो सकती। जिससे आत्मा का उत्थान हो, वह साधना केवल मनुष्यपर्याय में ही संभव है। इस महान और दुर्लभ मनुष्य पर्याय में संयम को धारण कर राग-द्वेषरूपी वृक्ष को भेदना चाहिए ।
इसकी प्राप्ति के लिये आचार्यों ने श्रावकों को प्रतिदिन कुछ करने योग्य कार्य बताये हैं, जिन्हें षट् आवश्यक कहते हैं। ये षट् आवश्यक देवों में नहीं हैं, तिर्यंचों में नहीं हैं और नारकियों में भी नहीं हैं । ये केवल मनुष्य पर्याय में ही संभव हैं। गृहस्थों के षट् आवश्यक कार्यों का वर्णन करते हुए आचार्य पद्मनन्दि महाराज ने लिखा है
देवपूजा गुरूपास्ति, स्वाध्यायः संयमस्तपः । दानं चेति गृहस्थानां, षट्कर्माणि दिने दिने । ।
1. देवपूजा, 2. गुरूपासन, 3. शास्त्र - स्वाध्याय, 4. संयम का पालन, 5. तप, 6. दान- ये श्रावकों के धार्मिक षट् आवश्यक कार्य होते हैं, जिन्हें प्रत्येक श्रावक को करना चाहिये। जो मनुष्य उत्तम कुल सम्पत्ति आदि को प्राप्त करके भी धार्मिक क्रियाओं को नहीं करता, वह व्यक्ति अज्ञानी / मूर्ख है। धर्म का आचरण करने से संसार का नाश व अनन्त सुख की प्राप्ति होती है
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एक व्यापारी बहुत धनवान् था । वह अपने व्यापार को बढ़ाने के लिये
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