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जाएँ और फिर जीवन में अन्धकार छा जाए। तात्पर्य यह है कि देवपूजा और गुरुउपासना यद्यपि जीवन में शान्ति का संचार करते हैं, किन्तु गृहस्थ का मन संसार में और गृहस्थी की उलझनों में अटका होने से वह अपना उपयोग अधिक समय तक देवपूजा आदि में नहीं लगा सकता । अतः गृहस्थों के अन्धकारमय जीवन में प्रकाश की किरण देने वाली केवल जिनवाणी ही है। गृहस्थों को शास्त्रस्वाध्याय प्रतिदिन करना उनका कर्त्तव्य ही नहीं वरन् आवश्यक भी है।
स्वाध्याय करने से आत्मा के गुणों का परिचय प्राप्त हो जाता है । आचार्य श्री विद्यानन्द जी महाराज ने एक उदाहरण देते हुये लिखा हैहनुमान जी सीता का पता लगाकर रामचन्द्र जी के पास आये और उन्होंने बताया कि मैंने सीता माता का पता लगा लिया है, वे एक पेड़ के नीचे सुरक्षित बैठी हैं। तब राम ने हनुमान को गले लगा लिया। हनुमान ने कहा - प्रभु! मैं सीता माता को तो लेकर भी नहीं आ पाया, फिर भी आप इतने हर्षित होकर मुझे गले क्यों लगा रहे हो? तब राम ने कहा, अरे हनुमान! तुम सीता का समाचार तो लेकर आये, मानों वह मुझे मिल गई । ऐसे ही स्वाध्याय के माध्यम से आप लोगों को आत्मा का साक्षात्कार हो गया, अभी कम-से-कम आपको आत्मा के गुणों का परिचय तो प्राप्त हो
गया।
जिनवाणी का स्वाध्याय करते हुए जो तत्त्वज्ञान प्राप्त करते हैं, उनके आनन्द को कौन बता सकता है? यह आनन्द बड़े वैभव से, सम्पदाओं से, राज्यों से नहीं खरीदा जा सकता है। जो शांति की कुंजी है, वह अपनी आपकी निर्मलता पर आधारित है ।
हम सबका कर्तव्य यह है कि उन प्रवचनों का अर्थात् शास्त्रों का श्रवण कर, पठन-पाठन कर कुछ लाभ उठायें। यही उन शास्त्रों का समग्र उपदेश है कि अपने आपके सारे भ्रम - जाल को समाप्त कर दें । हाँ
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