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पार कराने वाला गुरु होता है ।
एक सेठ किसी विद्वान् से प्रतिदिन धर्मशास्त्र सुना करता था, परन्तु उसके चित्त में संसार से विरक्ति तो लेशमात्र भी नहीं आती थी। इसका कारण एक दिन सेठ ने साधु से पूछा तो वह साधु उस सेठ और विद्वान् को जंगल में ले गया। वहाँ पर उसने उस सेठ और विद्वान् को अलग-अगल वृक्ष से बाँध दिया, फिर उस पंडित से साधु ने कहा, पंडित जी! सेठ जी पेड़ से बंधे हुए हैं । उनको बंधन मुक्त कर दो। पंडित जी बोले कि मैं स्वयं ही बंधन से युक्त हूँ, तो उन्हें कैसे मुक्त कर सकता हूँ? साधु ने सेठ से कहा कि तुम विद्वान् को बंधनमुक्त कर दो। सेठ जी ने कहा कि मैं स्वयं पहले रस्सी के बंधन से छूट जाऊँ, तब उन्हें छुड़ाऊँ । तब साधु ने दोनों की रस्सी खोलते हुए कहा कि विद्वान् स्वयं ही गृहस्थी में फँसे हैं, वे कैसे दूसरों को निकाल सकते हैं ? आरम्भ - परिग्रह से रहित गुरु ही त्याग का उपदेश देकर संसारसागर से तिरा सकता है ।
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गुरु शिष्य को आत्मा से परमात्मा बनने की प्रक्रिया सिखाते हैं संसारसागर से पार होने का ज्ञान गुरु के पास ही होता है। जिस प्रकार पानी में तैरनेवाला यदि स्वयं प्रवीण हो, तो वह डूबते हुये को बचा सकता है। उसी प्रकार गुरु जो स्वयं भवसागर से पार होने में दक्ष हैं, वही डूबते हुये शिष्य को संसारसागर से तिरा सकते हैं । शिष्य कैसा होना चाहिये ? यह बताते हुए क्षत्रचूडामणी' में लिखते हैं
गुरु भक्तो भवाद्भतो, विनीतो धार्मिकः सुधी । शान्त वान्तोह्मन्द्रालुः शिष्टः शिष्योघ्यमिष्यते । ।
जो अपने गुरु की भक्ति करता हो, संसार से भयभीत हो, विनयवान हो, धर्मात्मा तथा बुद्धिमान हो, शान्तचित्त हो, अप्रमादी हो, शालीनता का व्यवहार करता हो, ऐसा व्यक्ति धर्म सीखने का पात्र होता है। मंगलाचरण में लिखा है
अज्ञान - तिमिरान्धानां ज्ञानांजन शलाकया ।
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