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कीचड़ में से कौन निकालता ?
जिनका चित्त संसार में आसक्त है तथा देह को अपना रूप जानते हैं, उन्हें मरण का भय होता है। सम्यग्दृष्टि अपने स्वरूप को देह से भिन्न जानकर भयभीत नहीं होते हैं, उन्हीं के साधुसमाधि होती है। मरण के समय में जो कभी रोग, दुःख आदि आता है, वह भी सम्यग्दृष्टि को देह से ममत्व छुड़ाने के लिये आता है, त्याग-संयम आदि के सन्मुख कराने के लिये आता है, प्रमाद को छुड़ाकर सम्यग्दर्शन आदि चार आराधनाओं में दृढ़ता के लिये आता है।
ज्ञानी विचार करता है - जिसने जन्म धारण किया है, वह अवश्य मरेगा। यदि कायर हो जाऊँगा, तो मरण नहीं छोड़ेगा और यदि धीर बना रहूँगा, तो मरण नहीं छोड़ेगा। इसलिये दुर्गति का कारण जो कायरतारूप मरण है, उसे धिक्कार हो। अब ऐसे साहस से मरूँगा कि देह मर जायेगी किन्तु मेरे ज्ञान-दर्शन स्वरूप का मरण नहीं होगा। ऐसा मरण करना उचित है। अतः उत्साहसहित सम्यग्दृष्टि के मरण का भय नहीं होना, वह साधुसमाधि है।
देवकृत, मनुष्यकृत, तिर्यंचकृत उपसर्ग होने पर जिसको भय नहीं होता, पूर्व में बांधे हुए कर्म की निर्जरा ही मानता है, उसके साधु समाधि है। ज्ञानी को रोग से भय नहीं होता है। वह तो अपने शरीर को ही महारोग जानता है, क्योंकि शरीर ही तो क्षुधा, तृषा आदि महारोगों को उत्पन्न करानेवाला है। यह मनुष्यशरीर वात, कफादि त्रिदोषमय है। असातावेदनीय कर्म के उदय से, त्रिदोषों के घटने-बढ़ने से ज्वर, खांसी, श्वास, अतिसार, पेटदर्द, सिरदर्द, वातादि की पीड़ा होने पर ज्ञानी ऐसा विचार करता है- मुझे यह रोग उत्पन्न हुआ है, उसका अंतरंग कारण तो असातावेदनीय कर्म का उदय है, बहिरंग कारण द्रव्य-क्षेत्र-कालादि हैं; कर्म के उदय का उपशम होने पर रोग का उपशम हो जायेगा।
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