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प्रत्याख्यान समाधिमरण।
स्व और पर के द्वारा सेवा- सुश्रुषा का त्याग करना “प्रायोपगमन समाधिमरण" है। प्रायोपगमन समाधिमरण करनेवाला साधक एक स्थान पर खड़गासन, पद्मासन, शवासन आदि में स्थित रहता है। मल-मूत्र का भी त्याग नहीं करता है तथा कोई देव-दानव आदि उपसर्ग करें, फेंक दें, तो भी निश्चल, निस्पृह बने रहते हैं।
पर के द्वारा किये गये सेवा-सुश्रुषा का त्याग करना "इंगिनी समाधिमरण' है। इंगिनी समाधिमरण करने वाला वैयावृत्ति, चलना, उठना, मलमूत्र आदि विसर्जन करना, आहारादि में प्रवृत्ति आदि क्रिया को स्वयं ही करता है, अन्य किसी से नहीं करवाता है।
मरण का समय निकट जानकर खाद्य, स्वाद, लेह्य, पेय चार प्रकार के आहार का त्याग करके समता भाव से शरीर का त्याग करना "भक्त प्रत्याख्यान समाधिमरण" है।
सम्यग्ज्ञानी ऐसा विचार करता है- हे आत्मन! तुम अखण्ड, अविनाशी, ज्ञान-दर्शन स्वभावी हो, तुम्हारा मरण नहीं हो सकता। जो उत्पन्न हुआ है वह नष्ट होगा। पर्याय का विनाश होता है, चैतन्य द्रव्य का विनाश नहीं होता है। हे ज्ञानी! हजारों कृमि से भरे, हाड़-मांसमय, दुर्गंधित, प्रकट विनाशीक देह के नाश होने से तुम्हारा क्या होता है? तुम तो अविनाशी ज्ञानमय हो। यह मृत्यु तो बड़ी उपकारी मित्र है जो तुम्हें सड़े-गले शरीर में से निकालकर देव आदि की उत्तम देह धारण कराती है। यदि मृत्यु मित्र नहीं आता तो इस देह में अभी कब तक और रहना पड़ता? रोग तथा दुःखों से भरे शरीर में से कौन निकालता? समाधिमरण करके आत्मा का उद्धार कैसे होता? व्रत-तप संयम का उत्तम फल मृत्यु नाम के मित्र के उपकार किये बिना कैसे पाता? पाप से कौन भयभीत होता? मृत्युरूप कल्पवृक्ष के बिना चार आराधनाओं की शरण ग्रहण कराकर संसार रूपी
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