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शुभाचरण रूप प्रवृत्ति करो और सदा सम्यग्दर्शन को प्राप्त करने का प्रयास करो।
मोही गृहस्थ आर्त्त-रौद्रध्यान की महामारी से पीड़ित हो मूर्छित होता हुआ परिग्रह के संग्रह, संरक्षण और संवर्द्धन में निरंतर लगा रहता है। वह आहार, भय, मैथुन, परिग्रहसंज्ञा-स्वरूप ज्वर से जर्जरित हो रहा है। वह स्वद्रव्य में कैसे रत हो सकता है? वह अज्ञान के कारण स्व अर्थात् आत्मा को नहीं किन्तु धन को स्वद्रव्य समझे हुये है। इसी से वह दुःखाग्नि से सदा दग्ध होता रहता है।
'दाम बिना निर्धन दुःखी, तृष्णावश धनवान।' यह सूक्ति बताती है कि श्रमण का 'स्व' आत्मद्रव्य है, तो मोही गृहस्थ का 'स्व' धन-धान्यादि बन गया है। वह मूढ़ गृहस्थ जानते हुए भी कैसी बड़ी भूल करता है, इसे 'इष्टोपदेश' ग्रंथ में इन शब्दों में कहा गया है।
वपुहं धनं दाराः, पुत्रा मित्राणि शत्रवः ।
सर्वथान्य-स्वभावानि, मूढ़:स्वानि प्रपद्यते ।। ___ शरीर, धन, स्त्री, पुत्र तथा शत्रु सर्वथा भिन्न स्वभाव वाले हैं, किन्तु मूढ़ जीव उनको अपना समझा करते हैं।
परिग्रह की मूर्छा से मूर्छित गृहस्थ के हृदय में सम्यग्दर्शन-रसायन को पहुँचाने के लिए आचार्य कुंदकुंद स्वामी ने गृहस्थ के लिए पारिपालनीय सम्यग्दर्शन का यह स्वरूप 'मोक्ष पाहुड' में कहा है
हिंसारहिए धम्मे, अट्ठारह दोष वज्जिये देवे।
णिग्गंथे पव्वयणे सददहणं होई सम्मत्तं।। हिंसारहित धर्म में, अष्टादस दोष रहित जिनेन्द्रदेव में, निग्रंथ गुरु की वाणी में श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहलाता है।
'मोक्ष पाहुड' में श्रमणों को लक्ष्य करके सम्यग्दर्शन का स्वरूप 'स्वद्रव्य' आत्मस्वरूप में रत रहना अर्थात् निजस्वरूप में निमग्नता कहा है।
सद्दव्वरओ समणो , सम्माइट्ठी हवेइ णियमेण।
सम्मत्त परिणओ उण खवेइदुट्ठट्ठ कम्माइ ।।24।। 'जयधवला' की टीका में जिनेन्द्र भगवान् की भक्ति को संवर और निर्जरा
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