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प्राणिहिंसा महापाप है। तब माँ आटे के मुर्गे की बलि के लिए कहती है, उस समय यशोधर राजा मौन हो जाते हैं। इस प्रकार चंद्रमती माता और यशोधर राजा के द्वारा आटे के मुर्गे की बलि दी जाती है। इस कारण यशोधर राजा और माता चंद्रमती को छह भव तक बली चढ़ना पड़ता है । क्षुल्लक अभयरुचि और क्षुल्लिका अभयमति की पर्याय में भी उन्हें कैसी आपत्ति आ जाती है, इसका विस्तार 'यशोधर चरित्र' में पढ़ें।
अपने पूर्व-उपार्जित कर्मों के द्वारा जीव संसार में भ्रमण करता हुआ नाना प्रकार के दुःख उठा रहा है। जब कभी पुण्य उदय से वीतराग देव - शास्त्र - गुरु का समागम प्राप्त होता है तब यह जीव विचार करता है कि अहो! अनादिकाल से इस शरीर को अपना मानकर मैं संसार में दुःखों का ही पात्र बनता रहा हूँ। जन्म के समय मैं इसे साथ लाया नहीं था और मरण के समय भी यह यहीं पड़ा रह जायेगा। अतः ऐसा लगता है कि मैं इस - रूप नहीं हूँ। यह जड़ मुझसे कोई पृथक् ही पदार्थ है, जबकि मैं चेतनजाति का हूँ । जिनेन्द्र भगवान् के दर्शन करने से इसे स्व-पर का भेदज्ञान हो जाता है ।
अशुभोपयोग तो संसार में ही भ्रमाने वाला है। इससे कभी भी जीव संसार का अन्त नहीं कर सकता है, परन्तु अशुभ को छोड़कर शुभ प्रवृति करना व्यवहार चारित्र कहलाता है। आचार्य नेमिचन्द्र स्वामी " द्रव्य संग्रह" में लिखते
हैं
असुहादो विणिवित्ती, सुहे पवित्ती य जाण चारितं । वद समिदि गुत्ति रूवं ववहारणया दु जिण भणियं । । अशुभ क्रियाओं से निवृत्ति व शुभक्रियामय प्रवृत्ति, जो कि व्रत-समिति - गुप्ति स्वरूप है, वही व्यवहार चारित्र है, ऐसा जिनेन्द्र प्रभु ने कहा है और यही व्यवहार चारित्र निश्चय चारित्र को प्राप्त करानेवाला है। अतः व्यवहार चारित्र साध् नेयोग्य है। फिर भी ज्ञानी पुण्यार्जन करते हुये यानी शुभक्रियामय प्रवृत्त करते ये भी पुण्य के फल में रंजायमान नहीं होते । अशुभ (पाप) क्रियामय आचरण से कभी भी किसी आत्मा ने आज तक न मोक्ष प्राप्त किया है, न ही कोई कर रहा है और न ही कोई भविष्य में कभी कर पायेगा । अतः पापक्रिया को छोड़ते हुये
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