________________
बाहर आ गये, क्योंकि वे सब परद्रव्य हैं और शरीर यह भी तो परद्रव्य है। जब जीव चला जाता है, तो यह शरीर इस जीव के साथ कहाँ जाता है? शरीर तो यहीं पड़ा रहता है। यह शरीर तो नियम से छूटेगा। इसका क्यों नहीं त्याग करके आता? खैर, यह शरीर छोड़ा नहीं जाता तो कुछ परवाह नहीं, पर अंतरंग में ज्ञानप्रकाश तो लावो कि यह शरीर मेरा नहीं है, यह शरीर मैं नहीं हूँ। मैं तो आकाशवत्, अमूर्त, निर्लेप, शुद्ध ज्ञानमात्र हूँ। तुझे शांति चाहिये तो तू इस दुनियाँ से आँखें मींच ले। ऐसा जान जा कि इस दुनियाँ में मेरा पहिचानहार दूसरा कोई नहीं है।
अरे! किन से तू अपने को भला कहलवाना चाहता है? क्या है कोई संसार में ऐसा व्यक्ति जिसको शतप्रतिशत सभी मनुष्य भला कहने वाले उसके जमाने में हों या आगे पीछे भी हों ? भगवान् तक को तो भला कहने वाले शत-प्रतिशत नहीं हैं, हम-आप लोगों की बात तो दूर रही। किसको ग्रहण करते हो, किसके लिए ग्रहण करते हो? अपने आपके स्वरूप को देखो और जो विभावों को ग्रहण किया है उनको तजो।
_जिसके पास जितना जोकुछ परिग्रह है, उस परिग्रह के सम्बन्ध से क्या हाल हो रहा है? अन्तर में कितनी आकुलता मचाये हुए हैं? इन सब बातों का अपने आपसे परिचय पा लो कि परिग्रह शांति का कारण है अथवा अशांति का कारण है। जब तक अंतरंग में मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ का त्याग नहीं होता, तब तक इस जीव को शांति प्राप्त नहीं हो सकती है और ऐसा करने के लिए परिग्रह का त्याग करना होगा। गृहस्थावस्था में परिग्रह का परिमाण करना होगा। परिग्रह का परिमाण नहीं है तो तृष्णा के रोग में ग्रस्त होकर वर्तमान में भी जो कुछ मिला हैं, उससे सुख नहीं पाया जा सकता है क्योंकि दृष्टि तो जो अनागत है उसकी ओर लगी है। इतना और बन जाये, इतना और मिल जाये, इस ओर दृष्टि लगी है। इस कारण वर्तमान में जो कुछ समागम मिला है, उस
10
688_n