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उदासीन भाव रखता है, उसके त्याग धर्म होता है। धन्य हैं वे ज्ञानी, जो सोचते हैं कि मेरा हिती तो मेरा ही स्वरूप है, अन्य नहीं। मेरा इस चैतन्यस्वरूप के अलावा अन्य कुछ नहीं है। बाह्य पदार्थों से जितना वैराग्य होता है, उतना त्याग बढ़ता जाता है, उतनी ही महत्ता है। त्याग का ही तो महत्व है। यदि अन्तरंग से त्याग के भाव आ जावें, तो अनन्तचतुष्टय के दर्शन हो जावें और यदि ऐसा ज्ञान आ गया, तो समझो कि उसका बेड़ा पार है। ___शक्ति के अनुसार त्याग करने की भावना होना, लोक में जितने भी क्लेश हैं वे सब ग्रहण-ग्रहण के हैं। अपना घर समझा, अपना धन-वैभव समझा, विवाह किया, पुत्र हुए, मित्रगोष्ठी बनायी, लोक में इज्जत चाही, ग्रहण-ही-ग्रहण तो यह संसारीजीव करता है, जबकि शांति त्याग में है। सो शांति के उपाय का यह उद्यम नहीं करता। यह जीव बाहर में तो सबसे, बाहर की वस्तुओं से तो अलग है ही, त्याग किसका करना है? पर वस्तुवों को तो यह जीव ग्रहण ही नहीं कर सकता है। जिसको ग्रहण नहीं किए हुए है उसके त्याग की क्या बात कहें? पर अपने आपके अंतरंग में जो विषय-कषायों की इच्छा का परिग्रहण किए हुए है, उसका त्याग करना होता है। जो अन्तर के विभावों का त्याग नहीं करता, वह परपदार्थों का त्याग करके भी परिग्रह में रहता है। उसने घर छोड़ा, वस्त्र भी छोड़े, त्यागी भी बने, साधु भी हुए, पर चैन नहीं पड़ रही है। अरे! पर चीजों के त्याग मात्र से चैन मिले, ऐसा नियम नहीं है, किन्तु अंतरंग में जो विभावों का परिग्रहण किया है, उसका भी त्याग हो, तो नियम से चैन हो। __ भैया! पर वस्तुओं को अपना मान लेना, यह तो है ग्रहण और पर वस्तुओं को अपना न मानना, यह है त्याग। पदार्थ तो जहाँ पड़े हैं, उन्हें छोड़कर भागें कहाँ? लो, घर को छोड़कर चले आये, दूसरी जगह अथवा जंगल में आ जाय, धन-वैभव रुपया-पैसा भी छोड़ा, इन सबको छोड़कर
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