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हैं, उनसे अनेक लोग मित्रता करते हैं, निर्धन से कोई बात भी नहीं करता है। अधिक कहाँ तक कहें ? मित्रता तो व्यसनों में डुबोने के लिये ही है।
इसलिये हे ज्ञानीजनो! यदि संसार में डूब जाने का भय लगता है तो अन्य सभी से मित्रता छोड़कर परमधर्म में अनुराग करो। यह संसार तो निरन्तर जन्म-मरणरूप ही है। प्रत्येक जीव जन्म के दिन से ही मृत्यु की ओर निरन्तर प्रयाण करता है। अनंतानंत काल जन्म-मरण करते हो गया है, अतः पंचपरावर्तरूप संसार से विरागता भावो।
इंद्रियों के विषयों का स्वरूप- ये जो पाँच इंद्रियों के विषय हैं वे आत्मा के स्वरूप को भुलानेवाले हैं, तृष्णा को बढ़ानेवाले हैं, असंतोष को बढ़ानेवाले हैं। विषयों के समान पीड़ा तीनलोक में अन्य नहीं है। विषय तो नरकादि कुगति के कारण हैं। धर्म से पराङ्मुख करनेवाले हैं, कषायों को बढ़ानेवाले हैं, ज्ञान को विपरीत करनेवाले हैं, विष के सामान मारनेवाले हैं, विष और अग्नि के समान दाह उपजानेवाले हैं। इसलिये विषयों में राग छोडने में ही परम कल्याण है। जो अपना कल्याण चाहते हैं उन्हें विषयों को दूर से ही छोड़ देना चाहिये। - शरीर का स्वरूप- शरीर रोगों का स्थान है। महामलिन, दुर्गन्धित, सप्त धातुमय है, मल-मूत्रादि से भरा है वात-पित्त-कफमय है, वायु के निमित्त से हलन-चलन आदि करता है, सदा ही भूख-प्यास का कष्ट लगाये रहता है, सब प्रकार की अशुचिता का पुंज है, दिन-प्रतिदिन जीर्ण होता चला जाता है, करोड़ों उपायों द्वारा रक्षा करते रहने पर भी मरण को प्राप्त हो जाता है। ऐसे शरीर से विरक्त होना ही श्रेष्ठ है।
भैया! इस लोक में आपका क्या है? अच्छी तरह निर्णय कर लो। शरीर तो आपका होगा नहीं, यह भी धोखा दे देता है। यह आत्मा चली जाती है और शरीर यहीं-का-यहीं रह जाता है। जब तक यह शरीर है, तब तक दुःख है। अपने इस शरीर से बड़ा प्रेम करते हैं। लड्डू भी खूब
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