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जाता है। ज्ञानाभ्यास से ही व्रत-संयम से चलायमान नहीं होते हैं, जिनेन्द्र का शासन प्रवर्तता है, अशुभ कर्मों का नाश होता है, जिनधर्म की प्रभावना होती है। ज्ञान के अभ्यास से ही लोगों के हृदय में पूर्व का संचित कर रखा हुआ पापरूप ऋण नष्ट हो जाता है। अज्ञानी जितने कर्मों को घोर तप करके कोटि पूर्व वर्षों में खिपाता है, उतने कर्मों को ज्ञानी अंतर्मुहूर्त में ही खिपा देता है।
जिनधर्म का स्तम्भ ज्ञान का अभ्यास ही है। ज्ञान के प्रभाव से ही समस्त जीव विषयों की वांछा रहित होकर संतोष धारण करते हैं । ज्ञान के अभ्यास से ही उत्तमक्षमादि गुण प्रकट होते हैं, भक्ष्य - अभक्ष्य का, योग्य-अयोग्य का, त्यागने योग्य ग्रहण करने योग्य का विचार होता है । ज्ञान बिना परमार्थ और व्यवहार दोनों नष्ट हो जाते हैं।
ज्ञानरहित राजपुत्र का भी निरादर होता है। ज्ञान समान कोई धन नहीं है, ज्ञान के दान समान कोई दान नहीं है । दुःखित जीव को सदा ज्ञान ही शरण हैं। ज्ञान ही स्वदेश व परदेश में आदर कराने वाला परम धन है। ज्ञानधन को कोई चोर चुरा नहीं सकता है, लूटनेवाला लूट नहीं सकता है, किसी को देने से घटता नहीं है । जो देता है, उसका ज्ञान बढ़ जाता है।
ज्ञान से ही सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है, ज्ञान से ही मोक्ष प्रकट होता है। सम्यग्ज्ञान आत्मा का अविनाशी स्वाधीन धन है। ज्ञान बिना संसार - समुद्र में डूबनेवाले को हस्तावलंबन देकर कौन रक्षा कर सकता है? विद्या के समान कोई आभूषण नहीं है। निर्धन को भी परम निधान प्राप्त कराने वाला एक सम्यग्ज्ञान ही है ।
हे भव्यजीवो! भगवान् वीतराग करुणानिधान गुरु तुम्हारे लिये यह शिक्षा दे रहे हैं कि अपनी आत्मा को सम्यग्ज्ञान के अभ्यास में ही लगाओ तथा मिथ्यादृष्टियों के द्वारा कहे गये मिथ्याज्ञान का दूर से ही
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