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संसार है। जब यह शरीर भी मेरा साथी नहीं है, मेरा शरण नहीं है जो हमारे बहुत निकट का है, तब फिर अन्य पदार्थों से क्या आशा की जाय? अभिमान छोड़कर विनयशील बनना और अपने आपके स्वभाव की ओर झुकनेरूप नम्रता आना, विनय से ओत-प्रोत होकर पंचपरमेष्ठियों की आराधना करना, यह है विनयसम्पन्नता। इस मनुष्यजन्म की शोभा विनय से ही है। अतः विनय बिना मनुष्यजन्म की एक घड़ी भी नहीं बितानी चाहिए।
विनय महाधारै जो प्राणी, शिव-वनिता की सखी वखानी।
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