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मित्र ने अंत में भी यही कहा- मित्र ! याद रखना कि आदमी की प्रकृति कुछ ऐसी ही है जो दोष देखना ही जानती है।
सेठ ने शादी की तैयारियाँ छह महीने पूर्व ही प्रारंभ कर दीं। मन में यश की आकांक्षा को लेकर सेठ ने शादी की रूपरेखा खूब सोच-विचारकर तय कर ली। उसने सोचा, आनेवाले सभी बारातियों की खातिरदारी इस तरह करूँगा कि प्रत्येक बराती स्वयं को धन्यभागी समझेगा । विवाह की प्रशंसा ऐसी होगी कि जो विवाह में नहीं आयेंगे वे अपने को दुर्भाग्यशाली महसूस करेंगे। समय पर बारात आई । सेठ ने पहले से ही आगत-स्वागत की ऐसी तैयारियाँ कर रखी थीं कि सारे बाराती देखकर दंग रह गये । फिर उनके खान-पान, आमोद-प्रमोद, हास्य - विलास और सुख-सुविधाओं के समस्त साधन प्रचुर मात्रा में जुटाये हुए थे। एक-एक बाराती को इतना प्रेम, आदर और आग्रहपूर्वक सम्मान दिया जा रहा था कि सभी मन-ही-मन सेठ की प्रशंसा कर रहे थे ।
विवाहकार्य ठाठ-बाट से सम्पन्न हुआ। जब बेटी की विदा होने का समय आया तो सेठ ने समस्त बारातियों को एक बड़े सभागृह में बैठाया । सबसे नम्र निवेदन करते हुये कहा - आदरणीय महानुभावो ! आपके आगत-स्वागत और खातिरदारी में कोई त्रुटि रह गई हो तो मैं आप सबसे हाथ जोड़कर क्षमायाचना करना चाहता हूँ । मुझे इस बात का अफसोस है कि हम जितना चाहते थे उतनी आपकी सेवा नहीं कर सके ।
अंत में सेठ ने कहा- आज आप यहाँ से प्रस्थान कर रहे हैं । अतः जाते-जाते सभी से मेरा सविनय निवेदन है कि इस सभागृह के बाहर दोनों ओर घड़े रखे हैं, जो सच्चे मोतियों से भरे हुए हैं। जिसकी जितनी मर्जी हो, उतना वह उपहार के रूप में अवश्य लेकर जाए।
सारे बाराती यह कथन सुनकर दंग रह गये । मन-ही-मन सेठ की सराहना करने लगे- क्या दरियादिल आदमी है ये ! कुछ व्यक्ति सोचने लगे
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