________________
सोलहकारण भावनायें
सोलहकारण भावनाओं का जैन आम्नाय में अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। बार-बार हितरूप तत्त्व का विचार करने को "भावना" कहते हैं। भावशुद्धि के बिना भेदविज्ञान, सुख-शान्ति और वीतरागता नहीं आ सकती। “भावना भवनाशिनी, भावना भववर्धिनी।" दूषित भावना के द्वारा संसार की वृद्धि होती है और निर्मल भावना के द्वारा संसार का नाश होता है।
समस्त धर्म का मूल 'भावना है। भावना से ही परिणामों की उज्जवलता होती है, भावना से ही मिथ्यादर्शन का अभाव होता है, भावना से व्रतों में परिणाम दृढ़ होते हैं, भावना से वीतरागता की वृद्धि होती है। भावना से अशुभ ध्यान का अभाव होकर शुभ ध्यान की वृद्धि होती है, ऐसा जानकर प्रत्येक श्रावक को सोलहकारण भावनाओं को अवश्य भाना चाहिये ।
__ सोलहकारण भावना भाने का फल तीर्थंकरपना है। इनके द्वारा ही तीर्थंकरप्रकृति का बंध अव्रती सम्यग्दृष्टि को भी होता है, देशव्रती श्रावक को भी होता है, तथा प्रमत्त- अप्रमत्त संयत मुनिराज को भी होता है। तीर्थंकरप्रकृति सर्वोत्कृष्ट पुण्यप्रकृति है, इससे ऊँची पुण्यप्रकृति तीन-लोक में दूसरी नहीं है। गोम्मटसार कर्मकांड में कहा है
पढमुवसमिये सम्मे सेसतिये अविरदादि चत्तारि।
तित्थयर बंध पारं भया णरा केवलिदुगंते।। 93 ।। तीर्थंकरप्रकृति के बंध का प्रारंभ कर्मभूमि के मनुष्य पुरुषलिंगधारी के ही होता है, अन्य तीन गतियों में आरंभ नहीं होता। केवली-श्रुतकेवली के
641 0