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सबने मिलकर दुर्योधन को राज नहीं दिया, राजा नहीं बनाया। इन सबने मिलकर हस्तिनापुर को कुरुक्षेत्र बना दिया । जिस कुरुक्षेत्र में कौरव और पाण्डव एक ही परिवार के सदस्य होकर भी एक दूसरे के सामने खड़े होकर महाभारत कर बैठे। ये सब अभिमान का परिणाम था ।
श्रीकृष्ण जी ने आकर धृतराष्ट्र से कहा, 'राजन्! अभी भी हम तुम्हारे पास शान्ति का संदेश लेकर आये हैं । तुम से यदि बन सके तो पाण्डवों का राज्य पाण्डवों को लौटा दो। यदि नहीं लौटा सकते हो, तो कम-से-कम उन पाँच भाइयों को पाँच गाँव ही दे दो, जहाँ वे शांति और प्रेम से रह सकें ।' किन्तु धृतराष्ट्र के बोलने से पहले, भीष्म पितामह के बोलने से पहले, कुलगुरु के बोलने से पहले दुर्योधन जो अपने आपको सबकुछ मान बैठा था, वह श्रीकृष्ण के शांति संदेश को हँसी में उड़ाकर बोला- 'पाण्डवों को जहाँ जगह हो, चले जायें। हस्तिनापुर मेरा है । मैं सुई की नोक के बराबर भी जगह नहीं दूँगा ।' सुई की नोक के बराबर जमीन नहीं देने वाले अभिमानी ने स्वयं अपने आपको जमीन पर लिटा दिया और पूरे कुरुवंश का नाश किया । महाभारत का युद्ध केवल अहंकार के कारण हुआ। अहंकार की अंतिम परिणति तो पतन ही होती है। जिसने भी अहंकार किया, अन्त में निश्चित रूप से उसका पतन हुआ । इन आठ मदों का सदा के लिये छोड़ देना चाहिये । पच्चीस दोषों से रहित निर्मल सम्यग्दर्शन को दर्शनविशुद्धि भावना कहते हैं । दर्शनविशुद्धि आदि सोलहकारण भावनाओं का वर्णन आगे किया जा रहा है।
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