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के बल का अभिमान अज्ञानी के ही होता है। और शरीर का भी बल है क्या ? आत्मा में जो बल है, उस बल का एक औपचारिक विकृत रूप है। सदा अपने आत्मीय बल की भावना करना चाहिये। जिस बल के विकास के प्रसाद से यह आत्मतत्त्व निर्दोष आनन्दमय हो जाता है। ज्ञानीपुरुष देह के बल का अभिमान नहीं करता है और आत्मबल का आदर करके अपने को उस आत्मबल में विभोर करके तृप्त हुआ करता है। यह देह का बल, जवानी का बल, ऐश्वर्य का बल, प्रतिष्ठा का बल अनेक अज्ञानी जीवों को पीटनेवाला होता है।
किसी कवि ने कहा है कि 'यौवनं धनसंपत्तिः प्रभुत्वमविवेकिता। एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्टयम् ।' जवानी, धन-सम्पदा, प्रभुत्व-प्रतिष्ठा और अज्ञान, इन चारों बातों में से एक ही बात हो तो वह आत्मा की बरबादी के लिये पर्याप्त होता है। और किसी संसारी सुभट में ये चारों ही बातें इकट्ठी हो जायें तो फिर अनर्थ का वर्णन कौन कर सकता है ? अगर कोई मूढ़ अपने बल का दुरुपयोग करे, तो उसका परिणाम अत्यन्त भयानक होता है। नरकगति में उत्पन्न होकर असंख्यात काल प्रमाण दुःख भोगता है। पशु तिर्यंचों में जन्म ले तो मारना, ताड़ना, लदना, अनेक प्रकार के दुःख सहने पड़ते हैं। भूख, प्यास, ठंडी, गरमी आदि के दुःख सहने पड़ते हैं। और फिर एकेन्द्रिय आदिक जीवों में जन्म ले लिया तो फिर दुःखों का ठिकाना ही नहीं रहा। कौन-सा बल पाया जाये, जिसका अहंकार रखा जाये। विवेकी योगी/संत शुद्ध ज्ञायकस्वरूप निज अन्तस्तत्त्व का ध्यान किया करते हैं। 6. ऋद्धिमद - ज्ञानी को ऋद्धि अर्थात् धन-सम्पत्ति पाने का गर्व नहीं होता। सम्यग्दृष्टि तो धन आदिक परिग्रह को महाभार मानता है। वह विचारता है कि – ऐसा दिन कब आयेगा जब मैं समस्त परिग्रह के भार को छोड़कर अपने आत्मधन की सम्भाल करूँगा? धन-परिग्रह के भार का
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