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मेरा गधा नहीं, कोई महात्मा था और उसने स्वयं भी गर्दभसेन महाराज की जय बोलकर जिन्दगी गुजारना प्रारंभ कर दिया। इसे ही कहते हैं लोकमूढ़ता। अचानक ही गधे को देवता मानकर बिना सोचे-समझे, उचित-अनुचित का विचार किये बिना, लोगों की देखा-देखी काम करना, पूजा-आराधना करना ही मूढ़ता है। मूढ़तायें कई रूपों में विभक्त होती हैं।
ढेर लगावें पत्थर का, या गिरि से कूदे मर जावे । अग्निकुण्ड प्रवेश करे और धर्म मानकर नदी नहावे।।
किसी ने 7 पत्थर लिए और नज़र उतारकर फेंक दिये, दूसरे ने भी पत्थर उठकर फेंका तो वृक्ष प्रसिद्ध हो गया पत्थर वाले देवता के नाम से। जो भी जाये, पत्थर फेंके और सफलता की कामना करे। यह है मूढ़ता।
जिन्दगी से ऊबकर यह विचार करना कि ऊँचाई से आत्मा का नाम लेकर कोई गिरकर प्राण छोड़ता है, तो परमात्मा उसे बैकुण्ठ की यात्रा कराते हैं, क्योंकि शंकर जी ने पर्वत से ही बैकुण्ठ की यात्रा की थी। यह भी मूढ़ता है।
धर्म मानकर अग्नि में मरना, पति की मृत्यु होने पर स्वयं भी चिता में जलकर मरना, सती कहलाना, अग्नि को देवता मानकर उसे स्वयं को समर्पित कर देना, मूढ़ता है।
मन में धारणा बना लेना कि-गंगा, यमुना, सरस्वती, नर्मदा आदि नदियों में स्नान कर लेने से सारे पाप धुल जायेंगें, तो यह भी मूढता है।
काँटों की शैय्या पर लेटते हैं, महीनों बीत जाते हैं, शरीर बिंध जाता है। पट्टे से शरीर को मारकर लहू-हुहान कर देते हैं और मातम मानते हैं। तीर को गाल के एक जबड़े से पार कर दूसरे जबड़े तक ले जाते हैं, जिह्वा में लोहे के तार पार कर धर्म मानते हैं। ये सब मूढ़तायें हैं।
भैया! धर्म और अधर्म की कसौटी केवल एक है। जिस प्रवृत्ति में
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