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प्रकट करने में कारण है। वीतरागता तो मेरे भीतर प्रकट होगी, मेरे पुरुषार्थ से होगी, पर भगवान् का आलम्बन लिये बिना भी नहीं होगी।
शुभ कर्म से अनुकूल संयोग तथा अशुभ कर्म से प्रतिकूल संयोग प्राप्त होते हैं। जब अशुभ कर्म उदय में आते हैं तो वे अच्छे-अच्छे महापुरुषों तक की बुद्धि को भ्रष्ट कर देते हैं। देखिये, अशुभ कर्मों की ताकत के आगे बड़े-बड़े मोक्षगामी जीव जैसे तीर्थंकर, चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण आदि को भी पिछले किये हुये कर्मों का फल भोगना पड़ा। अतः अशुभ कर्मों को न आने देने के लिए सदैव अपने धार्मिक कर्त्तव्यों का पालन अवश्य करना चाहिये और इन धार्मिक क्रियाओं को माध्यम बनाकर शरीर और आत्मा के भेदविज्ञान की भावना को पुष्ट करना चाहिए, जिससे उपयोग पर्याय का आश्रय छोड़कर ज्ञानस्वभाव के सम्मुख हो और ज्ञान अपने को अपने रुप अनुभव करे। जो व्यक्ति अपने धार्मिक कर्त्तव्यों का पालन नहीं करते, उन्हें अन्त में पछताना पड़ता है।
एक मनुष्य वन में प्रवेश करता है लकड़ी पाने के लिए। लकड़ी एकत्र कर थकावट दूर करने हेतु वह एक वृक्ष की शीतल छाया में जा बैठा। वहाँ उसको एक चिन्तामणि रत्न हाथ आया। उसने विचार किया कि वह पत्थर बहुत सुन्दर है, उसे घर ले चलेंगे । वृक्ष के नीचे बैठे हुए उस लकड़हारे के मन में आया कि आज तो यहीं कोई ठण्डा जल पिला दे । बस, देर ही क्या थी? विचार आते ही निर्मल जल आ गया। उसे पीकर बड़ी प्रसन्नता हुई और विचारने लगा कि आज तो कई प्रकार के सुन्दर व्यंजन भी मुझे यहीं प्राप्त हो जाएँ | विचार करते ही कई देवांगनाएँ अनेक प्रकार के मिष्ठ तथा नमकीनादि खाद्य पदार्थों के द्वारा सजाए गये थाल लेकर उसके समीप आ कहने लगीं कि भोजन कीजिए । सुनते ही वह आनन्दित हो गया, उसका मन प्रफुल्लित हो गया और वह जीमने लगा। देवांगनाएँ हवा करती जाती हैं, उसी बीच एक काग वहाँ पर आता है और बोलना शुरू कर देता है अपनी कटु वाणी में। भोजन करते हुए उस पुरुष ने उस काग को उड़ाने के लिए उसी छोटे-से पत्थर को फेंक दिया। काग ने समझा कि कुछ खाद्य पदार्थ होगा, ऐसा जान उसे ले उड़ा।
उसी समय देवांगनायें आदि सभी माया लोप हो गई और वह मूर्ख अकेला
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