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जो भगवान् के स्वरूप को समझ जायेगा, वह अपनी आत्मा के स्वरूप को समझ जायेगा। और जो आत्मा के स्वरूप को समझ जायेगा, वह संसार के संकटों से पार हो जायेगा । हम शरण मानें तो केवल भगवान् की आराधना को शरण मानें। बाह्य में जो प्रवृत्ति कर रहा हूँ, वह तो विकार है, अपराध है, यह कोई बुद्धिमानी की बात नहीं है। इतनी बात ध्यान में रहे। विवेक की बात तो भगवान् की भक्ति और आत्मा का चिंतन है, बाकी तो सब अपराध है। कोई अपराध बड़ा होता है, तो कोई छोटा । कार्तिकेयानुप्रेक्षा ग्रंथ में आचार्य महाराज ने लिखा है
अग्गी वि य होदि हिमं होदि भुयंगो वि उत्तमं रयणं । जीवस्य सुधम्मादो, देवा वि य किंकरा होंति । ।432 । ।
उत्तम धर्म के प्रभाव से अग्नि भी शीतल हो जाती है, महाविषधर सर्प भी रत्नों की माला हो जाता है और देव भी दास हो जाते हैं। अतः जिनदेव की महिमा अपूर्व है। सम्पूर्ण दुःखों के नाश का कारण जिनाराधना है । निधत्ति और निकाचित- जैसे कर्मों के बंधन को शिथिल करने वाली जिनभक्ति ही है ।
अहो! अरहन्त-भक्ति की महिमा अनुपम है । जिनभक्ति के प्रभाव से मेंढक - जैसा (क्षुद्र) जीव भी स्वर्ग को प्राप्त हुआ, महान सतियों के शील की रक्षा हुई। सीता, द्रोपदी, सोमा, मैनासुन्दरी आदि ने जिनभक्ति के प्रभाव से अपने धर्म में दृढ़ रहकर अपनी पर्याय को धन्य किया ।
भगवान् की ध्यानावस्था का चिन्तवन हमको अपनी आत्मा की याद दिलाता है, अपनी भूली हुई निधि की स्मृति कराता है । जैसे कोई व्यक्ति कुंए पर अपनी टॉविल भूल आया हो और लौटते समय रास्ते में कोई दूसरा व्यक्ति अपने कन्धे पर टॉविल डाले हुये आ रहा हो, तो उसे देखकर उसे अपनी भूली हुई टाविल की याद आ जाती है। उसी प्रकार भगवान् की शान्त मुद्रा के दर्शन से हमें मालूम पड़ता है कि मैं कौन हूँ और मेरी आत्मशक्ति क्या है?
जब कोई भक्त गद्गद् होकर भक्तिपूर्वक प्रभु की ओर अपनी दृष्टि रखता है, प्रभु के गुणों में चित्त देता है, तो उसके अन्दर भी वीतरागता आना प्रारम्भ हो जाती है । भगवान् का वीतराग स्वरूप मेरे अन्तरंग की वीतरागता को
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