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इसी प्रकार कुदेवादि को अच्छा जान अनेक जीव सेवा करते हैं, किन्तु उनसे कोई भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता और पूरी तरह परलोक में नरकादिक दुःख ही सहन करना पड़ते हैं। इसलिए कुदेवादि का सेवन तो दूर ही रहो, किन्तु उनके स्थान पर रहना भी उचित नहीं है। जिस भाँति सर्पादि क्रूर जीवों का संसर्ग उचित नहीं, उसी भाँति कुदेवादि का संसर्ग उचित नहीं, सो सर्पादि और कुदेवादि में इतना विशेष है कि सपदि के सेवन से तो एक बार ही प्राणों का नाश होता है तथा कुदेवादि के सेवन से पर्याय में अनंतवार प्राणों का नाश होता है तथा जीव नाना प्रकार के नरक-निगोद के दुःख को सहते हैं। इसलिए सर्पादि का सेवन श्रेष्ठ है, किन्तु कुदेवादि का सेवन श्रेष्ठ नहीं है। इस प्रकार कुदेवादि का सेवन अनिष्ट जानना। इसलिए जो ज्ञानीपुरुष अपना हित चाहते हैं, वे शीघ्र ही कुदेवादि का सेवन छोड़ें। देखो, संसार में तो यह जीव ऐसा सयाना (चतुर) है और ऐसी बुद्धि लगाता है कि दमड़ी की हांडी खरीदे तो उसे भी तीन टाकोरे देकर फटी साबत देखकर खरीदता है। तथा धर्म के समान उत्कृष्ट वस्तु जिसके सेवन करने से अनंत संसार के दुःख से छूटता है उसे अंगीकार करने में अंश मात्र भी परीक्षा नहीं करता। सो लोक में तो भेड़चाल जैसा प्रवाह है। जैसे अन्य लोग पूजा करें तथा सेवन करें, उसी भांति यह भी पूजा तथा सेवन करता है। सो कैसी है भेड की चाल? भेड को ऐसा विचार नहीं है कि आगे खाई है या कुँआ है, कि सिंह है या व्याघ्र है- इस प्रकार बिना विचार के एक भेड़ के पीछे सर्व भेड़ चली जाती हैं। जो अगली भेड़ खाई या कुँआ में पड़ जाए, तो सभी पीछे की भेड़ें भी खाई व कुआँ में पड़ जाती हैं अथवा अगली भेड़ सिंह या व्याघ्रादि के स्थान में जाकर फँस जाये तो पिछली भेड़ें भी आकर फंस जाती हैं। उसी प्रकार यह संसारी जीव है, जो बड़ों (पूर्वजों) के कुल में खोटा मार्ग चला आया हो, तो यह भी खोटे मार्ग में चलता है अथवा अच्छा मार्ग चला आया हो तो भी इसके ऐसा विचार नहीं है कि अच्छा मार्ग कैसा और खोटा मार्ग
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