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कुलिंग को धारण कर अपने महंत भाव को पुष्ट करते हैं, वे कुगुरु हैं। वे कुगुरु जन्मजल से भरपूर इस संसार-समुद्र में पत्थर की नौका के समान हैं। जैसे पत्थर की नौका स्वयं तो डूबती है और उसमें बैठने वाले भी डूब जाते हैं, वैसे ही कुगुरु भी स्वयं भवसमुद्र में डूबते हैं और सेवन करने वाले भी भवसमुद्र में डूबते हैं।
जो रागादि भावहिंसा तथा त्रस व स्थावर जीवों की द्रव्यहिंसा से सहित क्रियायें हैं, उन्हें कुधर्म कहते हैं। ऐसे कुधर्म का सेवन करने से जीव को संसार में भ्रमण करते हुये चतुर्गति के दुःखों को सहन करना पड़ता है। अतः उसे छोड़ना चाहिये।
'मोक्षमार्ग प्रकाशक' ग्रंथ में पं. टोडरमल जी ने लिखा है
यह जीव अनादि से ही मिथ्यात्व सहित है और यदि वह यहाँ आकर भी ग्रहीत मिथ्यात्व का ही पोषण करे, तो उस जीव का दुःख से मुक्त होना अति दुर्लभ होता है।
जैसे कोई पुरुष रोगी है और वह कुपथ्य का सेवन करे, तो उस रोगी का स्वस्थ्य होना कठिन ही होगा। उसी प्रकार यह जीव मिथ्यात्वादि सहित है, वह कुछ ज्ञानशक्ति को पाकर विशेष विपरीत श्रद्धानादिक के कारणों का सेवन करे, तो इस जीव का मुक्त होना कठिन ही होगा।
इसलिये जिस प्रकार वैद्य कुपथ्यों को विष बतलाकर उनके सेवन का निषेध करता है, उसी प्रकार यहाँ कुदेव, कुगुरु व कुधर्म का स्वरूप बतलाकर उन्हें छोड़ने के लिये कहा है।
येषांरागानते देवा येषां मार्या न तेर्षयः। येषां हिंसा न तेऽग्रन्थाः कथयन्तीति योगिनः ।। जिनके राग है, वे देव नहीं हैं। जिनके स्त्री है, वे ऋषि नहीं हैं और जिनके हिंसा का कथन है, वे ग्रंथ (शास्त्र) नहीं हैं। ऐसा योगिराज कहते
हैं।
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