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प्रभावित करने की दृष्टि है, तो प्रभावना नहीं होती। जो आचरण दूसरों पर प्रभाव जमाने के लिये किया जाता है, वह जीवन का अलंकरण नहीं बन सकता। जो आचरण स्वयं की आत्मा के उत्थान के लिये होता है, वह जीवन को पवित्र और महान् बनाता है। अतः प्रभावना अंग स्वयं को आचरण से अलंकृत करने को कहता है ।
सदाचरण ही जीवन का प्रकाश है। सदाचरण अपनाने पर ही भीतर का अंधकार छँटेगा। बड़े-बड़े व्याख्यान देने मात्र से, साहित्य छाप कर बाँटने से अथवा भारी भीड़ वाले आयोजन करने मात्र से हृदय परिवर्तन नहीं होता। क्षणिक प्रभाव कदाचित् उत्पन्न हो जाये। लेकिन स्थायी परिवर्तन तो सदाचारी व्रती पुरुषों के आचरण के दर्शन से होता है । जैसे भगवान् महावीर पर कोई घंटों व्याख्यान दे तो भी वह प्रभाव नहीं होता जो किसी वीतरागी संत के दर्शन मात्र से होता है। महावीर जीवंत हो उठते हैं। महावीर क्या थे? - इसका सहज परिचय मिल जाता है।
एक समय था जब 'जैन हूँ,' इतना कहना ही बहुत हुआ करता था । कचहरी में जैन व्यक्ति की गवाही को सत्य माना जाता था । यह जैनियों के आचरण की प्रतिष्ठा थी । यह प्रतिष्ठा श्रावकों द्वारा सच्चाई के पथ पर चलने से जिनधर्म के सिद्धान्तों के प्रति निष्ठा रखने से बनी थी । आज वह प्रतिष्ठा नहीं रही, क्योंकि आचरण गौण हो गया। पहले प्रत्येक व्यक्ति के आचरण में जैनत्व परिलक्षित होता था । यही उनकी प्रतिष्ठा का आधार था। ऐसे लोगों के पवित्र आचरण से कोई भी प्रभावित हुए बिना नहीं
रहता था ।
पं० गोपालदास जी बरैया पंडिताई करते थे, किन्तु उन्होंने उसे आजीविका का साधन कभी नहीं बनाया । एक छोटी-सी दुकान से उनकी आजीविका चलती थी । पंडिताई के कार्य से जाते तो केवल वास्तविक मार्ग व्यय ही लेते। कभी मार्गव्यय में 10 रुपये भी बच जाते, तो उन्हें
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