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प्रचार-प्रसार करो, प्रभावना यही है। वचनों की अपेक्षा हमारे सद् आचरण से बहुत जल्दी प्रभावना होती है। इसी तरह सम्यक्त्व यदि हमारे जीवन में हो, उसके अनुरूप हमारा आचरण हो जाय, तो फिर जिनशासन की महिमा क्या है? –यह कहना नहीं पड़ेगा, वह स्वयं प्रकाशपुंज होगा। जहाँ जायेगा, भटकों को राह दिखायेगा। जिनधर्म के अनुयायी कैसे होते हैं?यह कहकर बताने की आवश्यकता नहीं रहेगी। "वाणी की अपेक्षा आचरण का प्रभाव अधिक पड़ता है।" वचनों की कीमत सदाचरण से है। पुरुषार्थसिद्धयुपाय ग्रंथ में आचार्य अमृतचन्द्र सूरि ने लिखा है
दान तपोजिन पूजा- विद्यातिशयैश्च जिनधर्मः । 30 ।। यदि तुम यथार्थ प्रभावना चाहते हो तो अपनी आत्मा को सम्यग्दर्शन, समयग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय की ज्योति से ज्योतित करो। अपनी आत्मा को आलोकित करो। फिर अपने ज्ञान, तप, दान एवं बड़े-बड़े धार्मिक समारोहों, महामहोत्सवों के द्वारा जिनशासन का प्रकाश फैलाओ। जब तक हमारा जीवन अंधकारग्रस्त है, तब-तक प्रकाश फैलाने की बात करना व्यर्थ है। प्रकाश वही फैला सकता है, जो स्वयं प्रकाशित हो, प्रकाशपुंज बन गया हो। इसलिए आचार्य कहते हैं
आदहिदं कादव्वं, जं सक्कइ परहिदं-च कादव्वं ।
आदहिदं पर हिदादो, आदहिदं सुट्ठ कादव्वं ।। पहले अपनी आत्मा का कल्याण करो। उसके बाद यदि सामर्थ्य हो, तो यथाशक्ति दूसरों का कल्याण करने का पुरुषार्थ करो। जब कभी अवसर आये स्वहित और परहित में एक को चुनने का, तो स्वहित अवश्य चुन लेना, क्योंकि स्वहित से ही जनहित कर सकोगे। जो अपनी आत्मा का हित नहीं कर सकता, वह पर की आत्मा का हित कर ही नहीं सकता। ___ आज तो लोग “पर उपदेश कुशल बहुतेरे" वाली बात कर रहे हैं। सारी बातें/उपदेश दूसरों को प्रभावित करने के लिये हैं। यदि दूसरों को
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