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चारों ओर अग्नि की ज्वाला भड़की। मुनिवरों पर घोर उपसर्ग हुआ। लेकिन ये तो थे मोक्ष के साधक वीतरागी मुनि भगवन्त! अग्नि की ज्वाला के बीच में भी वे मुनिराज तो शान्ति से आत्मा के वीतरागी अमृतरस का पान करते रहे। बाहर में भले अग्नि भड़की, परन्तु अपने अन्तर में उन्होंने क्रोधाग्नि जरा भी भड़कने नहीं दी। अग्नि की ज्वालायें धीरे-धीरे बढ़ने लगीं ........ | लोगों में चारों ओर हाहाकार मच गया। हस्तिनापुर के जैन श्रावकों को अपार चिन्ता होने लगी। मुनिवरों का उपसर्ग जब तक दूर नहीं होगा, तब तक सभी श्रावकों ने खाना-पीना त्याग दिया।
अरे! मोक्ष को साधनेवाले सात सौ मुनियों के ऊपर ऐसा घोर उपसर्ग देखकर भूमि भी मानो फट गई .............. आकाश में श्रवण नक्षत्र मानों काँप रहा हो। यह सब एक क्षुल्लकजी ने देखा और उनके मुँह से चीत्कार निकली। आचार्य महाराज ने भी निमित्त-ज्ञान से जान कर कहा- "अरे! वहाँ हस्तिनापुर में सात सौ मुनियों के संघ के ऊपर बलि राजा घोर उपसर्ग कर रहा है और उन मुनिवरों का जीवन संकट में है।"
क्षुल्लकजी ने पूछा- "प्रभो! इनको बचाने का कोई उपाय है?" आचार्य ने कहा- "हाँ, विष्णुकुमार मुनि उनका उपसर्ग दूर कर सकते हैं, क्योंकि उन्हें ऐसी विक्रिया ऋद्धि प्रगट हुई है, जिससे वे अपने शरीर का आकार जितना छोटा या बड़ा करना चाहें, उतना कर सकते हैं, परन्तु वे तो अपनी आत्मसाधना में ऐसे लीन हैं कि उन्हें अपनी ऋद्धि की भी खबर नहीं और मुनियों के ऊपर आये हुए उपसर्ग की भी खबर नहीं।"
यह सुनकर क्षुल्लकजी के मन में उपसर्ग दूर करने हेतु विष्णुकुमार मुनिराज की सहायता लेने की बात आई। आचार्यश्री की आज्ञा लेकर वे क्षुल्लकजी तुरन्त ही विष्णुकुमार मुनिराज के पास आये और उन्हें सम्पूर्ण वृत्तान्त बता कर प्रार्थना की- "हे नाथ! आप विक्रिया ऋद्धि से यह उपसर्ग तुरन्त दूर करें।"
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