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थे। उनका नाम था विष्णुकुमार । वे आत्मा के ज्ञान-ध्यान में मग्न रहते। उन्हें कुछ लब्धियाँ भी प्रगट हुई थीं, परन्तु उनका उन पर ध्यान नहीं था। उनका ध्यान तो आत्मा की केवलज्ञान लब्धि साधने पर था।
सिंहरथ नाम का राजा इस हस्तिनापुर के राजा का शत्रु था और उन्हें बारम्बार परेशान करता रहता था। पद्यराय उसे अभी तक जीत नहीं सका था। अन्त में बलि मंत्री की युक्ति से पद्यराय ने सिंहस्थ को परास्त कर दिया। इसलिए खुश होकर राज ने बलि को मुँहमाँगा वरदान माँगने को कहा, परन्तु बलि मंत्री ने कहा- "हे राजन्! जब आवश्यकता पड़ेगी, तब यह वरदान माँग लूँगा।" __इधर अकम्पनाचार्य आदि सात सौ मुनि भी देश-विदेश विहार करते हुए भव्यजीवों को धर्म समझाते हुए हस्तिनापुर नगरी पहुँचे। वहाँ अकम्पनाचार्य इत्यादि मनिवरों को देखकर बलि मंत्री भय से काँप उठा। उसको डर लगा कि इन मुनियों के कारण हमारा उज्जैन का पाप अगर प्रगट हो गया तो यहाँ का राजा भी हमारा अपमान करके हमें यहाँ से निकाल देगा। क्रोधित होकर अपने बैर का बदला लेने के लिए वे चारों मंत्री विचार करने लगे। अन्त में उन पापियों ने सभी मुनियों को जान से मारने की एक दुष्ट योजना बनाई। राजा से जो वचन माँगना बाकी था, वह उन्होंने माँग लिया। उन्होंने कहा- "महाराज! हमें एक बहुत बड़ा यज्ञ करना है, इसलिए सात दिन के लिए यह राज्य हमें सौप दें।"
अपने वचन का पालन करके राजा ने उन्हें सात दिनों के लिए राज्य सौंप दिया और स्वयं राजमहल में जाकर रहने लगे।
बस, राज्य हाथ में आते ही उन दुष्ट मन्त्रियों ने 'नरबलि यज्ञ' करने की घोषणा की ............. और जहाँ मुनिवर विराजे थे, वहाँ चारों ओर से हिंसा के लिए पशु और दुर्गन्धित हड्डियाँ, माँस, चमड़ी तथा लकड़ी के ढेर लगा दिये और उन्हें सुलगाने के लिए बड़ी आग जला दी। मुनियों के
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