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वह माँ 15 दिन बाद पुनः लड़के को लेकर वर्णी जी के पास पहुंची। वर्णी जी ने उस लड़के से कहा, 'तुम गुड़ खाना छोड़ दो। लड़के ने तुरन्त गुड़ न खाने का नियम ले लिया। वह माँ बोली- जब आपको इतना ही कहना था, तो 15 दिन पहले ही क्यों नहीं कह दिया था ? वर्णी जी बोले- उस समय मैं स्वयं गुड़ खाता था। यदि तब मैं उससे गुड़ न खाने के लिये कहता तो वह गुड़ खाना नहीं छोड़ता। जब मैंने इन 15 दिनों में स्वयं गुड़ खाना छोड़ दिया, तभी मेरे कहने से उस लड़के ने गुड़ न खाने का नियम ले लिया।
स्वयं को धर्म में स्थिर करें और परिस्थितिवश कोई साधर्मी बन्धु धर्म से स्खलित हो रहा हो तो पुनः धर्म में स्थिर करने का प्रयास करें। यह बात निश्चित है कि जिसकी आत्मा में धर्म के प्रति वात्सल्य भाव होगा, वह अपनी प्रज्ञा के माध्यम से स्वयं रत्नत्रयवान् होगा और दूसरों को भी उस मार्ग में स्थिर करेगा। जिसकी आत्मा में सम्यग्दर्शन का सूरज उदित हो जाता है, वह नियम से साधर्मी को बढ़ता, फलता-फूलता देखता है। सरलचित्त व्यक्ति की ही आत्मा से करुणा का झरना फूटता है, वही पतितों का उद्धार करता है, आत्मा के मैल को धोता है। अगर हमने गिरते हुये को नहीं संभाला तो गिरता हुआ व्यक्ति ही बदनाम नहीं होगा, अपितु धर्म भी बदनाम होगा, मार्ग भी कलंकित होगा।
संसार में सभी एक दूसरे के सहारे आगे बढ़ रहे हैं। बिना बीज के वृक्ष नहीं उगता, बिना वृक्ष के बीज नहीं होता। यह परस्पर का सहयोगिता सम्बन्ध है। हम स्वयं सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को स्वीकारते हुये अन्य को भी उसमें स्थिर करें; यही स्थितिकरण है। यही सोचें कि संसार की बुराइयाँ न मुझे पसन्द हैं, न दूसरों में मैं इन बुराइयों को देखना चाहता हूँ। इसलिये यथाशक्ति मैं इन्हें त्यागता हूँ और दूसरों को भी बुराई से बचाने की चेष्टा करूँगा। मुझे यह संसार पसन्द नहीं है, इसलिये मैं पर
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