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________________ कामक्रोधमदादिसु चलयितुमुदितेषु वर्त्मनो न्यायात् । श्रुतमात्मनः परस्य च युक्त्या स्थितिकरणमपि कार्यम् ।। काम, क्रोध, मदादि विकार न्यायमार्ग से अर्थात् धर्ममार्ग से विचलित करने के लिए प्रगट हुये हों, तब शास्त्रानुसार अपनी और पर की स्थिरता करना स्थितिकरण अंग है। कभी भी गलती को दोहराना नहीं चाहिये। गलती करके स्वयं की निन्दा करते हुये स्वयं धर्म में स्थिर हों व दूसरों की गलती दिख जाये तो उन्हें सम्बोधित करें। उसे भी स्थिर करें। सम्यक्मार्ग में आना और लाना ही तो स्थितिकरण है। ___ यदि हम दूसरों का स्थितिकरण करना चाहते हैं तो पहले स्वयं को धर्म में स्थिर करें। आज जो स्वयं आरम्भ-परिग्रह से सहित हैं वे मुनिराजों का स्थितिकरण करना चाहते हैं। यह तो चींटी द्वारा हाथी की सुरक्षा के लिए खून देने वाली बात है। एक बार एक चींटी बड़ी तेजी से भागी जा रही थी तभी उसकी सहेली ने उससे पूछा "अरी बहन! इतनी जल्दी में कहाँ? "खून देने"-सहेली चींटी ने चलते हुये उत्तर दिया, "किसे?" चींटी ने फिर पूछा। पता नहीं तुझे? आगे हाथी का एक्सीडेंट हुआ है'- सहेली चींटी ने जवाब दिया। जो स्वयं धर्म में स्थिर हो, वही दूसरों का स्थितिकरण कर सकता है। स्थितिकरण अंग कहता है- पहले अपने जीवन को सुधारो, फिर अन्य को सुधरने के लिये कहो। ___एक बार एक माँ अपने छोटे बेटे को लेकर वर्णी जी के पास गई और बोली- मेरा यह बेटा गुड़ बहुत खाता है, आप इसका गुड़ खाना छुड़वा दीजिये। वर्णी जी बोले- आप इसे लेकर 15 दिन बाद आना। 0 5720
SR No.009993
Book TitleRatnatraya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages800
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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