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छूटा नहीं था। भाव-मुनिपना अभी उन्हें हुआ नहीं था। प्रत्येक क्रिया करते समय उन्हें अपने घर की याद आती थी, सामायिक करते समय उन्हें बारम्बार पत्नि का स्मरण होता रहता था। वारिषेण मुनि उनके मन को स्थिर करने के लिए उनके साथ में ही रह कर उन्हें बारम्बार उत्तम ज्ञान-वैराग्य का उपदेश देते थे, परन्तु अभी उनका मन धर्म में स्थिर हुआ नहीं था। ऐसा करते-करते बारह वर्ष बीत गये। एक बार वे दोनों मुनि भगवान् महावीर के समवसरण में बैठे थे। वहाँ इन्द्र प्रभु की स्तुति करते हुये कहते हैं- "हे नाथ! यह राजभूमि अनाथ होकर आप के विरह में रो रही है और उसके आँसू नदी के रूप में बह रहे हैं।"
इन्द्र ने तो भगवान् के वैराग्य की स्तुति की, परन्तु जिसका चित्त अभी वैराग्य में पूरी तरह लगा नहीं था- ऐसे पुष्पडाल मुनि को तो यह बात सुन कर ऐसा लगा- "अरे! मेरी पत्नि भी इस भूमि की तरह बारह वर्ष से मेरे बिना रो रही होगी और दुःखी हो रही होगी। इसलिए अब तो चलकर उससे बात करके आयेंगे।
ऐसा विचार करके पुष्पडाल तो किसी को कहे बिना ही घर की तरफ जाने लगे । वारिषेण मुनि उनकी चेष्टा समझ गये। उनके हृदय में मित्र के प्रति धर्म-वात्सल्य जागा और किसी भी तरह उनको धर्म में स्थिर करना चाहिये- ऐसा विचार करके उनके साथ चलने लगे और पहले राजमहल की ओर गये।
पूर्व मित्र सहित मुनि बने राजकुमार को महल की तरफ आते हुए देखकर चेलना रानी को आश्चर्य हुआ, अरे ! क्या वारिषेण मुनिदशा का पालन नहीं कर सके, इसलिए लौट कर आ रहे हैं?- ऐसा उन्हें सन्देह हुआ। उनकी परीक्षा के लिए उन्होंने एक लकड़ी का आसन और दूसरा सोने का आसन रख दिया, परन्तु वैरागी वारिषेण मुनि तो वैराग्यपूर्वक लकड़ी के आसन पर ही बैठे, और इससे चतुर चेलनादेवी समझ गई कि
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