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ऐसा कह कर वे तुरन्त ही जंगल में आचार्य भगवन्त के पास गये और उन्होंने दीक्षा ले ली..... और वे आत्मा को साधने लगे ।
राज्य के मंत्री का पुत्र, जिसका नाम पुष्पडाल था, बालपने से ही वारिषेण का मित्र था। एक बार वारिषेण मुनि विहार करते-करते पुष्पडाल के गाँव पहुँचे। पुष्पडाल ने उन्हें विधिपूर्वक आहारदान दिया । इस समय अपने पूर्व के मित्र को धर्म - बोध देने की भावना उन मुनिराज को उत्पन्न हुई । आहार के पश्चात् मुनिराज वन की ओर जाने लगे। विनय से पुष्पडाल भी उनका कमंडलु लेकर पीछे-पीछे चलने लगा। कुछ समय चलने पर पुष्पडाल के मन में विचार आया कि गाँव तो अब पीछे छूट गया है और वन भी आ गया है। मुनिराज मुझे रुकने को कहेंगे तो मैं अपने घर वापस चला जाऊँगा, परन्तु मुनि महाराज आगे बढ़े ही जा रहे थे..... I मित्र को वापिस जाने को उन्होंने कहा ही नहीं ।
पुष्पडाल को घर जाने की आकुलता होने लगी। उसने मुनिराज को याद दिलाने के लिए कहा- "हे महाराज! जब हम छोटे थे, तब इस तालाब पर आते थे और आम के पेड़ के नीचे साथ-साथ खेलते थे, यह पेड़ गाँव से दो-तीन मील दूरी पर है. हम गाँव से बहुत दूर आ गये हैं।” यह सुनकर भी वारिषेण मुनि ने उसे वापस जाने को नहीं कहा । परम हितैषी मुनिराज मोक्ष का मार्ग छोड़ कर संसार में जाने को क्यों कहेंगे?
अंत में वे आचार्य महाराज के पास आ पहुँचे । वारिषेण मुनि ने उनसे कहा - "प्रभो! यह मेरा पूर्व का मित्र है ।"
आचार्य महाराज ने उसे निकटभव्य जानकर दीक्षा दे दी । सच्चा मित्र तो वही है, जो जीव को भव - समुद्र से बचाये ।
अब, मित्र के अनुग्रहवश पुष्पडाल भी मुनि हो गये थे और बाहर में मुनि के योग्य क्रिया करने लग गये थे, परन्तु उनका चित्त अभी संसार से
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