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कलकत्ता जा रहे थे। उनमें एक सिंधी व्यापारी भी था। उसके चालीस हजार रुपये ट्रेन में चोरी हो गये। वह बहुत दुःखी हुआ। हताश हो गया। उसी डिब्बे में आठ सिंधी व्यापारी भी थे। उन्हें इस बात का पता चला, तो वे उसे दिलासा दिलाते हुए कहने लगे- "तुम दुःखी मत होओ, हम आठ लोग हैं। प्रत्येक तुम्हें पाँच-पाँच हजार देते हैं, तुम अपना काम करो। जब रुपये हो जायें, तो वापस कर देना। "श्रेष्ठ सहयोग की भावना का यह अनुकरणीय उदाहरण है।"
धर्म तभी तक सुरक्षित है, जब तक धर्मात्मा और धर्मपरायण लोग हों। दोनों को ही संरक्षण देने की आवश्यकता है। यही सच्चा स्थितिकरण है। आचार्य वीरनंदि महाराज ने लिखा है
___ जैनानामापदगतांस्तस्मादुपकुर्वन्तु सर्वथा।
यो समर्थोपि उपेक्षेत स- कथं समयी भवेत।। यदि कोई धर्मात्मा आपत्तिग्रस्त हो, तो उसे सब प्रकार से सहयोग देना चाहिये, क्योंकि "न धर्मो धार्मिकैर्बिना।" धर्मात्माओं के रहते तक ही धर्म है। जो व्यक्ति समर्थ होकर भी किसी आपत्तिग्रस्त धर्मात्मा की उपेक्षा करता है, वह कैसा धर्मात्मा है? विपरीत परिस्थितियों में कोई भी ६ गर्म से डिग सकता है।
अच्छे-अच्छे तपस्वी भी पथ से विचलित हो सकते हैं। शास्त्रों में उल्लेख है कि द्वीपायन मुनिराज के भाव सर्वार्थसिद्धि जाने के योग्य थे। परन्तु अन्त समय में जब उन पर उपसर्ग किया गया, तो वे अपने पथ से च्युत हो गये और मरकर दुर्गति में चले गये। यदि पथच्युत न होते, तो केवल एक भव ही शेष था, सही अर्थ में सिद्धि हो जाती, पर यही तो परिणामों की विचित्रता है कि पथच्युत होने में भी देर नहीं लगती। इसलिये आचार्य कहते हैं कि जहाँ तक बने, ऐसी परिस्थितियाँ निर्मित न होने दें जिससे कोई स्खलित हो। सच्चा सम्यग्दृष्टि सदा दूसरों को
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