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स्थितिकरण अंग
विषय कषायदि के निमित्त से सम्यग्दर्शन या सम्यक्चारित्र से डिगते हुये पुरुषों को पुनः उसी में स्थित करना स्थितिकरण अंग है। स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा की टीका करते हुये आचार्य शुभचन्द्र महाराज ने लिखा
है
मुनि,आर्यिका, श्रावक, श्राविका के भेद से चार प्रकार के संघ में से जब कोई व्यक्ति दर्शनमोहनीय या चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से सम्यग्दर्शन या सम्यक्चारित्र को छोड़ना चाहता है, तो यथाशक्ति आगमानुकूल धर्म का उपदेश देकर या धन की सहायता देकर यथाशक्ति का प्रयोग करके अथवा अन्य उपाय से भी जो उसे धर्म में स्थित किया जाता है, उसे व्यवहार से स्थितिकरण अंग कहते हैं और मिथ्यात्व, राग-द्वेष आदि समस्त विकल्पजाल को त्यागकर अपने आत्मस्वभाव में स्थिर होना निश्चय से स्थितिकरण गुण है।
संसार में इंसान की प्रवृत्ति अत्यन्त विपरीत है। वह गिरते हुये को तो गिराता ही है, पर चढ़ते हुये को भी गिराने की चेष्टा करता है लेकिन सम्यग्दृष्टि की विशेषता होती है कि वह न तो चढ़ते हुये को गिराता है, न गिरते हुये को और धक्का देता है, अपितु करुणार्द होकर, धर्माभिभूत होकर धर्म से, त्याग से च्युत होते हुये व्यक्ति को ऊपर उठाने की, उसे संभालने की, पुनः धर्म में-त्याग में स्थित करने की चेष्टा करता है, सहारा
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