________________
भक्त उसकी सेवा करने को उत्सुक होते थे, उन सबके समक्ष वह जादुई दर्पण रख देता था। फिर निराश होकर उसके मुँह से शब्द निकलते थेइस दुनियाँ में किसी का भी दिल साफ नहीं है। यहाँ तो सभी के हृदय में ईर्ष्या, द्वेष, अहंकार, छल-कपट और क्रोध आदि भरा पड़ा है।
यह सब देखकर वह हैरान और परेशान हो गया। उसने दुनियाँ के हर कोने का भ्रमण करके देख लिया, परन्तु उसे कहीं संतुष्टि नहीं हुई। कुछ बरसों बाद वह फिर से गुरुजी के पास आ गया और बोला- गुरुजी! मैं बहुत परेशान हो चुका हूँ। ऐसा क्यों है कि संसार के सभी व्यक्तियों के मन में नाना प्रकार के दोष भरे पड़े हैं? मैंने दुनियाँ के हर व्यक्ति को इस जादुई दर्पण में देखा तो पाया कि किसी का भी हृदय साफ और पापरहित नहीं है। क्या संसार में सभी लोग ऐसे ही होते हैं ? किसी का भी मन पवित्र नहीं है? मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि कहाँ जाऊँ और किसके साथ रहूँ? शिष्य को इस प्रकार व्यथित देखकर गुरुजी मुस्कुराये, शिष्य का हाथ पकड़ा और दर्पण का मुख उन्होंने शिष्य की ओर कर दिया। शिष्य ने अब प्रथम बार उस दर्पण में अपने मन के प्रतिबिम्ब को देखा तो वह हक्का-बक्का रह गया कि स्वयं उसके मन में भी कितना कचरा भरा हुआ है। मन का हर कोना क्रोध, मान, माया, लोभ, राग-द्वेष, वासना आदि से भरा पड़ा है। वह अपनी बुराइयों को देखकर इतना घबरा गया कि पसीने-पसीने हो गया।
उसने गुरुजी से पूछा- गुरुदेव! मैं क्या देख रहा हूँ? मेरा हृदय तो सभी के हृदयों से ज्यादा बुरा दिखाई दे रहा है। गुरुजी ने सस्नेह शिष्य की ओर देखते हुये कहा- यह दर्पण मैंने तुम्हें दूसरों के मन की बुराइयों को देखने के लिये नहीं, अपितु अपने स्वयं के मन की बुराइयों को देखने के लिये भेंट किया था, ताकि तुम स्वयं को पवित्र बना सको। परन्तु तुमने इस दर्पण का प्रयोग दूसरों पर किया और दुःखी हुये। आज से इस जादुई दर्पण का प्रयोग तुम्हें स्वयं को देखने के लिये करना होगा।
556