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त्यागी से चैत्यालय संभालने के बारे में कहकर सेठ चले गये। जब रात होने लगी, तो गाँव से थोड़ी दूर जाकर उन्होंने पड़ाव डाला।।
रात हो गई ............ | सूर्य चोर उठा ....... | नीलम मणि रत्न को जेब में रखा और भागने लगा, परन्तु नीलम मणि का प्रकाश छिपा नहीं, वह अन्धेरे में भी जगमगाता था। इससे चौकीदारों को शंका हुई और उसे पकड़ने के लिए वे उसके पीछे दौड़ पड़े।
"अरे !............. मंदिर के नीलम मणि की चोरी करके चोर भाग रहा है ........... | पकड़ो....... पकड़ो ............ पकड़ो ...........।" चारों ओर सिपाहियों ने हल्ला मचाया। ___इधर सूर्य चोर को भागने का कोई मार्ग नहीं रहा, इसलिए वह तो जहाँ जिनभक्त सेठ का पड़ाव था, वहीं पर घुस गया। चौकीदार चिल्लाते हुए चोर को पकड़ने के लिए पीछे से आये। सेठ सबकुछ समझ गया कि. ........ अरे! ये भाईसाहब चोर हैं, त्यागी नहीं।
__ "लेकिन त्यागी के रूप में प्रसिद्ध यह मनुष्य चोर है- ऐसा लोगों में प्रसिद्ध हुआ तो धर्म की बहुत निन्दा होगी” – ऐसा विचार कर बुद्धिमान सेठ ने चौकीदार को रोककर कहा- "अरे! तुम लोग ये क्या कर रहे हो? यह कोई चोर नहीं है, यह तो धर्मात्मा है। नीलम मणि लाने के लिए तो मैंने उसे कहा था, तुम गलती से इसे चोर समझ कर परेशान कर रहे हो।"
सेठ की बात सुनकर सब लोग चुपचाप वापिस चले गये। इस तरह एक मूर्ख मनुष्य की भूल के कारण होनेवाली धर्म की बदनामी बच गयी। इसे ही उपगूहन अंग कहते हैं। जैसे एक मेंढक के दूषित होने से सम्पूर्ण तालाब गन्दा नहीं होता, उसी प्रकार कोई असमर्थ निर्बल मनुष्य के द्वारा छोटी-सी भूल हो जाने पर पवित्र जिनधर्म मलिन नहीं हो जाता।
जिस तरह माता इच्छा करती है कि मेरा पुत्र उत्तम गुणवान हो, अतः
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